दूर शहर-ए-दिल से जब हर इक कुदूरत हो गई
दुश्मन-ए-जाँ से हमें अपने मुहब्बत हो गई
हुस्न-ए-मुतलक़ की अगर तुम पर इनायत हो गई
तो समझ लेना मयस्सर हर सआदत हो गई
सुन के ये फ़िक़रा ज़माने भर को हैरत हो गई
इश्क़ करके ज़िंदगानी ख़ूबसूरत हो गई
ग़म-ज़दा गिर्या-कुनाँ हूँ मैं फ़िराक़-ए-यार में
बज़्म-ए-मय में आऊँगा जिस वक़्त फ़ुरसत हो गई
वक़्त के हाकिम को जिस पर नाज़ था वो देखिए
रेज़ा रेज़ा लम्हों में तख़्त-ओ-हुकूमत हो गई
हुस्न-ए-निस्वाँ पर किया जब भी किसी ने तब्सिरा
उस घड़ी क़ल्ब-ए-तपाँ पर नाज़िल आयत हो गई
दफ़अतन ये शोर उट्ठा इश्क़ के मैदान में
लग रहा है हज़रत-ए-दिल की शहादत हो गई
जितने नाबीना हैं मिल जायेगी सब को रौशनी
इनको गर उस चाँद से रुख़ की ज़ियारत हो गई
जिस्म हासिल कर नहीं पाए महाज़-ए-इश्क़ में
इश्क़ के मक़तल में हाँ दिल पर हुकूमत हो गई
इस क़दर ढाए मज़ालिम आबा-ओ-अजदाद ने
आबा-ओ-अजदाद से हमको अदावत हो गई
मयक़दे में जब पढ़े हमने मसाइब हिज्र के
मयक़दे में इक शजर बरपा क़यामत हो गई
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