बहुत मैं हिम्मत भी करके शायद सभी को दर्पण दिखा रहा हूँ
मरा पड़ा है यहाँ का मुंसिफ़ यही तो मैं सच बता रहा हूँ
ज़रा बग़ावत करो सियासत कि तुम सज़ा दो यूँ मुज़रिमों को
मैं बेगुनाहों के सिर्फ़ अब तो यहाँ जनाज़े उठा रहा हूँ
मैं ज़ुल्म को रोकने की ख़ातिर क़लम का लेता हूँ बस सहारा
जो लोग हैं इल्म वाले मुर्शद उन्हीं को अब मैं जगा रहा हूँ
बहुत ज़रूरी है अब यहाँ पर सभी से मिल्लत सभी से चाहत
जो नफ़रतों में ही पल रहे हैं उन्हें मुहब्बत सिखा रहा हूँ
जो ख़ार हैं नफ़रतों के 'दानिश' उन्हें हराना है फूलों से अब
जो है फ़िदा चाय शर्बतों पर मैं उनको ज़म-ज़म पिला रहा हूँ
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