सियासी छाँव में यूँ जुर्म का पौधा पनपता है
ख़ुशी से जैसे माँ की गोद में बच्चा पनपता है
कमी में इस तरह कोई कमी सर-सब्ज़ होती है
बदन के ज़ख़्म में जैसे कोई कीड़ा पनपता है
उसे बेहतर पता होता है जंगें कैसे लड़नी हैं
शिकस्तों से नसीहत पा के जो चेहरा पनपता है
कोई मुश्किल जवाँ होती नहीं है इत्तिला कर के
मुसीबत का शजर दायम ही बे-मौक़ा पनपता है
बदी की पौध दिल के खेत में उगती है ऐसे ही
किसी फ़स्ल-ए-रबी में जिस तरह बथुआ पनपता है
ख़ुदी से लड़ के जी पाना कहाँ आसान है इतना
बड़ी मुश्किल से दुनिया में कोई मुझ सा पनपता है
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