दियों के नीचे उदास बैठे ज़िया की चाहत में आम चेहरे
नसीब पे अपने रो रहे हैं ग़मों में लिपटे तमाम चेहरे
कई दरख़्तों पे फूल खिलते हैं दौर-ए-बाद-ए-शबाब में भी
हमेशा दिखते नहीं दुखी ही दुखों में लिपटे तमाम चेहरे
रहेगी हरदम न बेरुख़ी ही ढलेगी शब भी सहर भी होगी
बहाल हो जाएँगे तअल्लुक़ करेंगे जब एहतिराम चेहरे
क़रीब होकर भी बारहा रुख़ कभी को रहते हैं अजनबी ही
कभी बना लेते हैं ठिकाना दिलों के अंदर अनाम चेहरे
मुशायरों को तो ख़ुद अदीबों ने इक तमाशा बना दिया है
कहाँ ये गाने-बजाने वाले कहाँ वो अहल-ए-कलाम चेहरे
ख़बर-नवीसों के दल नहीं हैं ये ज़र-ख़रीदों की टोलियाँ हैं
जिधर भी देखो उधर झुके हैं बदों के आगे ग़ुलाम चेहरे
सियाह-बख़्ती पे आज अपनी यूँ ही सहाफ़त न रो रही है
हलाल चेहरों को ओढ़े बैठे हैं मजलिसों में हराम चेहरे
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