मुसीबत में भी मेरी ये समझदारी नहीं जाती
ख़फ़ा कितना भी होऊँ नर्म-गुफ़्तारी नहीं जाती
कोई अपना ग़लत हो गर तो लहजा नर्म रहता है
ग़लत तो है मगर मुझ से ये बीमारी नहीं जाती
बड़ी मग़रूर आदत है ग़मों में मुस्कुराने की
मेरी नस नस में बहती ये अदाकारी नहीं जाती
कोई उम्मीद जब बचती नहीं झुकना ही पड़ता है
किसी से यूँ ही कोई सल्तनत हारी नहीं जाती
जहाँ भी फ़ायदा देखें झुका देते हैं सर अपने
ये आदत आज भी लोगों की दरबारी नहीं जाती
हसद की आग में सब जल रहे हैं एक दूजे से
न जाने क्यूँ दिलों से ये महामारी नहीं जाती
लुटा हूँ बारहा मैं इश्क़ के जिन रहगुज़ारों पर
उन्हीं राहों से मेरी आज भी यारी नहीं जाती
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