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लगता मुझे डर नींद जो आये, ऐसे ख़्वाब थे - Zain Aalamgir

लगता मुझे डर नींद जो आये, ऐसे ख़्वाब थे
रातें सभी रो बन समंदर जाये, ऐसे ख़्वाब थे

सपने दिखे पकवान के, बच्चे सभी माँ से कहे
सपने सभी से डर, न वो सो पाये, ऐसे ख़्वाब थे

देखे फटी कम्बल सडक पर ओढ़ मुफलिस को तभी
बादल बरसने को बहुत कतराये, ऐसे ख़्वाब थे

हालात में गुमसुम कहीं, ख़ामोश दिनभर वो रहे
वहशत उसे दर्पण से, वो घबराये, ऐसे ख़्वाब थे

है वो अजब के सब ठहरते ही नहीं घर में कभी
वीरानियत दिल के मकाने लाये, ऐसे ख़्वाब थे

चाहे मिरा दिल अब ख़ुशी, उसको तलाशे फ़िर कहाँ
अश्क़ों से जो राहें सभी धुल जाये, ऐसे ख़्वाब थे

कश्ती हवाओं से लड़ी, तैयार थी हर जंग को
पर क्या पता पानी दग़ा दे जाये, ऐसे ख़्वाब थे

क्यूँ पेड़ अब तुम याद रखते ही नहीं जो शाख़ पर
पत्ते सभी ता-उम्र जो तरसाये, ऐसे ख़्वाब थे

मैं यार को आवाज़ दूँ, वो यार मुड़कर देख ले
नींदें खुले जैसे मुकर ही जाये, ऐसे ख़्वाब थे

जीते कभी थे हम फिराक़े-ख़ुश-गवारी, अब नहीं
अब जो मिले ना ग़म मुझे, मर जाये, ऐसे ख़्वाब थे

दिखता नसीबे-'ज़ैन' कैसा, सोचकर देखूँ अगर
के मैल हाथों की लकीरें खाये, ऐसे ख़्वाब थे

- Zain Aalamgir

Khwab Shayari

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