रात में मुझको दिया ऐसे जलाना आ गया
तीरगी होते सवेरा इक भुलाना आ गया
ख़ारज़ारों से भरे राहें, क़दम लम्बे सही
ज़ख्म-पा को साथ फ़िर भी हाँ निभाना आ गया
दौर रावी और कितने ग़मज़दा पल आ यहाँ
राह के आते मुसाफ़िर को सुनाना आ गया
ऐब फ़िर बे-ऐब होते जा रहे हैं क्या मिरे
मौत से क्या, ज़िंदगी से अब डराना आ गया
थे कहे अरबाब मुझको, तुम पशेमानी करो
लो नसें काटी, सुधरता अब दिखाना आ गया
मो'जिज़े ये किस तरह के हैं अज़िय्यत के मिरे
अश्क़ आरिज़ पे मगर हाँ मुस्कुराना आ गया
किस तरह उम्मीद की पाने उसे तो चार-सू
वो न सच थी, झूठ से ख़ुदको मनाना आ गया
तुम कई बातें किया करती, कभी थकती नहीं
अब नहीं तुम, याद जो तेरा सताना आ गया
बादलों ने बारिशें दिन में नहीं की, ठीक है
अंधियारे में स्वयं को क्यूँ रुलाना आ गया
आदतन ही हर मरासिम मैं निभाता हूँ यहाँ
मान लूँ कैसे अलग अब ये ज़माना आ गया
छोड़ जाता नक़्श पैरों के कभी घर लौटने
देख पीछे, धूल को रस्ता मिटाना आ गया
है निभाई क्या मुरव्वत और से तुमने कभी
ये हुनर बेसाख़्ता ग़म का जताना आ गया
बैठ तू भी संग मेरे, तजरबों की बात है
लफ़्ज़ से बातें नहीं करनी, भुलाना आ गया
अक़्ल-मंदो का कहीं मज्मा, हसी की महफ़िलें
राइगाँ इक शख़्स लेकर ग़म दिवाना आ गया
सौ किताबें भर चुकी थी अब सुख़न से, हाँ मगर
देख तुझको 'ज़ैन' को फ़िर इक फ़साना आ गया
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