फूल हो या कोई कली उस का ही चेहरा दिखता है
अब जो नहीं है मेरा वो फिर भी वो मेरा दिखता है
छोड़ गया जो तन्हा वो क्यूँ मेरा घेरा दिखता है
मैं ने यूँ ही नहीं कहा जैसे बनेरा दिखता है
क्या करे अब निगाहों का सब घुप-अँधेरा दिखता है
सूख गया ये फूल अब उस को क्या ज़ेरा दिखता है
सोचता इश्क़-ए-दिल का क्या ग़म का ये मारा दिखता है
क्या ये जहाँ में इश्क़ में ज़िंदगी हारा दिखता है
टूट गया है दिल इधर ख़ून का क़तरा दिखता है
क़ाफ़िया था जो ग़ज़लों का नज़्म-ए-मुअर्रा दिखता है
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