मुहब्बतें ही यहाँ है मज़हब तुम्हारी नफ़रत नहीं चलेगी
मिरा वतन है वफ़ा का सागर यहाँ अदावत नहीं चलेगी
है उनको नफ़रत भी मुस्लिमों से मगर वो शेख़ों से मिल रहे हैं
ये कैसी रिश्तों की दास्ताँ है ये इश्क़-ओ-फ़ितरत नहीं चलेगी
जला के घर को ग़रीब की तुम अगर जो सेंकोगे रोटियाँ फिर
ज़ियादा दिन तक समझ लो हाकिम यहाँ हुकूमत नहीं चलेगी
लगा के आतिश तू नफ़रतों की जला के बस्ती तू याद रखना
वो राख तूफ़ान लाएगी फिर तुम्हारी ताक़त नहीं चलेगी
यहाँ की मिट्टी है पाक ऐसी जिसे लहू से सँवारा हम ने
हमीं को ग़द्दारी का सनद दे ये तेरी दहशत नहीं चलेगी
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