न गौहर न मोती न ज़र देखते हैं
जो तेरे करम की नज़र देखते हैं
बला का हसीं हैं सो उसको हसद से
ये जलभुन के शम्स-ओ-क़मर देखते हैं
ज़मीं हो कि अम्बर कहाँ तू नहीं है
उधर तू ही तू है जिधर देखते हैं
हों बेदार या आलम-ए-ख़्वाब कुछ भी
दर ए पाक ख़ैर-उल-बशर देखते हैं
वो मीनार-ओ-गुम्बद वो शहर-ए-मदीना
नबी हैं जहाँ ज़लवा-ग़र देखते हैं
बढ़ेंगी ख़ताएँ गिरेगा ज़मीं पर
जिसे आज सब अर्श पर देखते हैं
ज़मीं पर पयम्बर किसे वो बनाए
वो बख़्शे किसे ये हुनर देखते हैं
ख़ुदा के मुख़ालिफ़ खड़े होने वाले
ज़मीं दोज़ होते बशर देखते हैं
हुई शाम छोड़ो ये आवारगी अब
कज़ा कब्ल आक़ा का घर देखते है
मुनाफ़िक़ को साहिल नहीं काम कोई
नबी के वो ऐब-ओ-हुनर देखते है
Read Full