रात मेरे ख़्वाब में थी आज मुझको वो मिली
तीरगी में इक हसीं महताब सी जो थी खिली
आज देखा है उसे मैंने लिबास-ए-ईद में
आज मुझ काफ़िर को भी है ईद की ईदी मिली
उसकी चौखट को नमन कर के मैं जब से आया हूँ
देख कर हैरान हैं मेरी सभी ज़िंदा दिली
जान पर अपनी बनी तो लोग चिल्लाने लगे
कल तमाशा देखते थे ,सब ज़बानें थीं सिली
नोंच डाला है उसे फिर से किसी हैवान ने
इक सुगम सुंदर कली जो ताज़ा-ताज़ा थी खिली
राम जी भी मुग्ध हो कर गालियाँ सुनते रहे
इतनी मीठी इतनी पावन है हमारी मैथिली
रात जागे से तुझे क्या मिल गया 'सागर' बता
ये ग़ज़ल के चंद मिसरे, दुनिया भर की बे-दिली
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