सहर क़रीब है तारों का हाल क्या होगा

  - Sahba Akhtar

सहर क़रीब है तारों का हाल क्या होगा
अब इंतिज़ार के मारों का हाल क्या होगा

तिरी निगाह ने ज़ालिम कभी है ये सोचा
तिरी निगाह के मारों का हाल क्या होगा

मुक़ाबला है तिरे हुस्न का बहारों से
न जाने आज बहारों का हाल क्या होगा

नक़ाब उन का उलटना तो चाहता हूँ मगर
बिगड़ गए तो नज़ारों का हाल क्या होगा

मज़ाक़-ए-दीद ही 'सहबा' अगर बदल जाए
तो ज़िंदगी की बहारों का हाल क्या होगा

  - Sahba Akhtar

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