तेरी सोहबत में जो गुज़री वही क्या ज़िंदगानी है
ग़मों ने दम कुचल डाला जो है सहमी जवानी है
बहा जब ख़ूँ गु़लामी में रहा ये तन-बदन जलता
अगर क़िस्मत पलटती है तो क़िस्मत आज़मानी है
उतर कर सच के साँचे में ग़लत फिर भी ग़लत होगा
ग़लत को फिर ग़लत कहने की आदत ख़ानदानी है
अदावत को भुलाने में रफ़ाक़त को निभाने में
न अव्वल कोई है मुझ से न मेरा कोई सानी है
अजब वहशत का आलम है तेरे दौर-ए-हुकूमत में
यहाँ हर सर पे ख़ंजर है ये कैसी हुक्मरानी है
किराए का बसेरा है नहीं ज़ाती मकाँ 'वासिफ़'
कि हर शय आरज़ी ठहरी ये दुनिया भी तो फ़ानी है
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