"मुकम्मल इश्क़"
मुकम्मल इश्क़ मेरा मेरे बाद किसी ग़ैर का ना रहा
सब सज्दे मुकम्मल हुए बस तेरा आना विफल रहा
तेरी नुमाइश पसंद आँखों का बढ़ा यहाँ पहरा रहा
तुझे हर नज़र से बचाने को मैं तेरे साथ ठहरा रहा
तुझे स्याही मानकर मै अपनी किताब लिखता रहा
तुझे उसमें पाकर मैं उसे ज़िंदगी भर पढ़ता रहा
तुझे इन्हीं लफ़्ज़ों से ताज का मुमताज़ बनाता रहा
अपनी हर कहानी में हीर से राँझे को दूर कराता रहा
तू बस इंतिज़ार कर, मैं ख़ुद को यही समझाता रहा
तू बस ठहराव निकली वक़्त का, जो गुज़र जाता रहा
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