Badr-e-Alam Khan Azmi

Badr-e-Alam Khan Azmi

@badr-e-alam-khan-azmi

Badr-e-Alam Khan Azmi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Badr-e-Alam Khan Azmi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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फ़ाक़ा-मस्ती में भी जीने की अदा ले जाएँगे
ये लुटेरे मेरे घर से और क्या ले जाएँगे

दनदनाते फिर रहे हैं ज़ाफ़रानी भेड़िये
घर के अंदर घुस के बच्चों को उठा ले जाएँगे

आदमी का जिस्म होगा और सर इबलीस का
पाठशालाओं में काले साँप पाले जाएँगे

उन का मक़्सद है ख़ुदा से हर वसीला काट दें
हाथ से क़ुरआन होंटों से दुआ ले जाएँगे

ज़र्रा-ज़र्रा लाल कर देंगे हमारे ख़ून से
और हमीं से ये सितमगर ख़ूँ-बहा ले जाएँगे

वो मिटा देंगे हमारी अज़्मतों का हर निशाँ
चाँद-तारों से हमारा नक़्श-ए-पा ले जाएँगे

तिश्नगी होगी जहाँ बे-साख़्ता नौहा-कुनाँ
उस जगह हम दास्तान-ए-कर्बला ले जाएँगे

ख़ूँ-चकाँ तारीख़ दोहराएगी अपने आप को
मय-कदे से शैख़ जी फिर से निकाले जाएँगे

कब तलक यूँही दुआओं पर रहेगा इंहिसार
कब तलक सर यूँही नेज़ों पर उछाले जाएँगे

पारसा हम-राह ले जाएँगे पिंदार-ए-अमल
हम तो अपने साथ उन की ख़ाक-ए-पा ले जाएँगे

लौट कर जाने न पाएँगे ये ज़ालिम ख़ाली हाथ
कुछ नहीं तो साथ अपने बद-दुआ' ले जाएँगे
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Badr-e-Alam Khan Azmi
ज़िंदगी का ढंग ये कैसा है तेरे शहर में
एक रोता है तो इक हँसता है तेरे शहर में

हाथ में पत्थर लिए इक भीड़ है हर मोड़ पर
इन दिनों मेरा बहुत चर्चा है तेरे शहर में

मेरे सीने में सुलगता है कोई आतिश-फ़िशाँ
हर क़दम पर दिल मिरा जलता है तेरे शहर में

जिन के आँखें हैं उन्हें कुछ भी नज़र आता नहीं
देखने वाला मगर अंधा है तेरे शहर में

जब कोई चढ़ता है ऊपर खींच लेते हैं उसे
एक गिरता है तो इक उठता है तेरे शहर में

लोग सींचेंगे लहू से लहलहाती फ़स्ल को
नफ़रतों के बीज वो बोता है तेरे शहर में

जल रही है धीरे धीरे दिल के रिश्तों की मिठास
कौन है जो आग भड़काता है तेरे शहर में

आस्तीनों में हैं ख़ंजर फिर भी मिलते हैं गले
दोस्ती के नाम पर धोका है तेरे शहर में

किस की चीख़ों से लरज़ते हैं दर-ओ-दीवार सब
कौन है जो रात भर रोता है तेरे शहर में

पाँव से मा'ज़ूर हो जाता है ख़ालिस और खरा
हाँ वही चलता है जो खोटा है तेरे शहर में

तंज़ करता है मिरी ग़ुर्बत पे मेरा ही ज़मीर
है बुरा वो शख़्स जो अच्छा है तेरे शहर में

जंगलों में भेड़िये को भेड़िया खाता नहीं
आदमी को आदमी खाता है तेरे शहर में

रोज़ मरने की दुआएँ माँगती है ज़िंदगी
बस वही ज़िंदा है जो मुर्दा है तेरे शहर में

कर दिया ता'मीर उस की क़ब्र पर बैत-उल-ख़ला
एक शाइ'र किस क़दर रुस्वा है तेरे शहर में

आँधियों में बुझ गए हैं शहर के सारे चराग़
एक रौशन बस तिरा चेहरा है तेरे शहर में
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Badr-e-Alam Khan Azmi
ख़ुद-आगही ने लहू में डुबो दिया मुझ को
शुऊर-ए-ज़ात की ऐसी मिली सज़ा मुझ को

मिसाल-ए-गौहर-ए-नायाब ज़ेर-ए-आब रहा
ये आरज़ू थी समुंदर उछालता मुझ को

मैं टिमटिमाता हुआ तीरगी से लड़ता रहा
तलाश करती रही सर-फिरी हवा मुझ को

वो बे-शुमार दफ़ीने न यूँ पड़े रहते
अगर ज़माना सलीक़े से खोदता मुझ को

मिला किसी को सुकूत-ए-दवाम ओ बे-ख़बरी
लहू में डूबा हुआ ये क़लम मिला मुझ को

जबीं पे क्या किया तहरीर ख़ामा-ए-हक़ ने
कि आगही भी समझती है सर-फिरा मुझ को

मैं हारता ही गया ज़िंदगी की हर बाज़ी
शिकस्त देती रही उम्र भर अना मुझ को

चटख़ रहा है बदन और धुआँ धुआँ है दिल
किसी ने दी है सुलगने की बद-दुआ' मुझ को

क़ुसूर मेरा यही था कि बे-क़ुसूर था मैं
अमीर-ए-शहर ने फिर भी जला दिया मुझ को

यहाँ वहाँ सर-ए-बाज़ार ख़ूँ बहा मेरा
अजीब है कि चुकाना है ख़ूँ-बहा मुझ को

अगर मैं दर्द से चीख़ूँ तो है अदाकारी
दिखाऊँ ज़ख़्म तो कहते हैं ख़ुद-नुमा मुझ को

मैं अपने हाथ में अपना बुरीदा सर ले कर
चला तो रोक रही थी कोई सदा मुझ को

कभी चराग़ जलाऊँ तो काँप जाता हूँ
हर एक आग से लगता है ख़ौफ़ सा मुझ को

ब-फ़ज़्ल-ए-आबला-पाई ब-फ़ैज़-ए-तिश्ना-लबी
सराब ढूँढ रहा है बरहना-पा मुझ को

अभी महल के दर-ओ-बाम ना-मुकम्मल हैं
ये किस ने ख़्वाब से आ कर जगा दिया मुझ को

हर इंकिशाफ़ पे हैरत-ज़दा खड़ा रहता
अगर वो बैठ के फ़ुर्सत में सोचता मुझ को

न जाने कब से है उस पार देखने की हवस
फ़सील-ए-ज़ात से ऊपर ज़रा उठा मुझ को
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Badr-e-Alam Khan Azmi
तमाम क़हर-ओ-बला से है वास्ता मेरा
हर एक हादिसा लगता है हादिसा मेरा

हवा सुनाती है नौहागरी शहादत का
हर एक मौज पे लिक्खा है मर्सिया मेरा

वो कौन है मिरे अंदर जो वार करता है
ये किस हरीफ़ से ठहरा मुक़ाबला मेरा

कोई किताब उठाऊँ तो ख़ूँ टपकता है
ये कौन कर गया ज़ख़्मी मुताला मेरा

ख़ुदा गवाह कि उन की ज़मीन तंग हुई
दुरुस्त करने चले थे जो क़ाफ़िया मेरा

तुयूर आए मगर उन की चोंच ख़ाली थी
फ़रार हो गया लश्कर से अबरहा मेरा

ये क्या हुआ कि अचानक दहल उठे बच्चे
वो कोई पूछ रहा है वहाँ पता मेरा

बिछड़ के उस से हर इक शय बिछड़ गई मुझ से
उसी का अक्स दिखाता है आईना मेरा

मुझे गुमान की मेरा ज़मीर ज़िंदा है
उसे यक़ीन कि सब कुछ है वाहिमा मेरा

हर इक बला का मुझी पर नुज़ूल होता है
लिखा हुआ है फ़लक पर कहीं पता मेरा

फ़लक-शिगाफ़ मिरी चीख़ जब उभरती है
सुनाई देता है लोगों को क़हक़हा मेरा

किसे पड़ी है जो गहराइयों में उतरेगा
यहाँ पे कौन समझता है फ़ल्सफ़ा मेरा

मैं बर्ग-ए-गुल से करूँगा मुक़ाबला उस का
सुना दो जा के ये क़ातिल को फ़ैसला मेरा
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Badr-e-Alam Khan Azmi
कभी दीवार लरज़ती है तो दर चीख़ता है
जाने क्या बात है दिन-रात ये घर चीख़ता है

सारे माहौल पे तारी है कसाफ़त ऐसी
साँस लेते हुए घबरा के शजर चीख़ता है

ख़ामुशी हौसला ज़ालिम का बढ़ा देती है
और ख़ता-कार है मज़लूम अगर चीख़ता है

रूह में डंक चुभोती है सितम-पेशा हयात
एक ख़ामोश फ़ुग़ाँ है कि बशर चीख़ता है

कितना बे-ख़ौफ़ था वो ग़ार की तारीकी में
आज हाथों में लिए शम्स-ओ-क़मर चीख़ता है

कभी तारीख़ उछलती है कटे हाथ के साथ
कभी नेज़े पे उछाला हुआ सर चीख़ता है

पेश करता है छुपा कर ग़म-ए-पिन्हाँ लेकिन
उस की तहरीर का हर ज़ेर-ओ-ज़बर चीख़ता है

सख़्त बीमार सही 'ताज' अभी ज़िंदा है
इक मुसव्विर का मगर ख़ून-ए-जिगर चीख़ता है
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Badr-e-Alam Khan Azmi
ब-सद-फ़रेब उसे क्या से क्या दिखाई दे
कि इब्तिदा में जिसे इंतिहा दिखाई दे

कभी तो कोह-ए-गिराँ तक नज़र नहीं आए
कभी हवा का मुझे नक़्श-ए-पा दिखाई दे

तमाम रिश्तों की बुनियाद हिलने लगती है
जब आइने में कोई दूसरा दिखाई दे

तलाश करती है दुनिया उसी के नक़्श-ए-क़दम
वही जो भीड़ में सब से जुदा दिखाई दे

ये है हमारी सियासत कि दिल पड़ोसी का
हमारे दिल में धड़कता हुआ दिखाई दे

फ़लक को ताकते उस ने गुज़ार दीं सदियाँ
उसे उमीद थी शायद ख़ुदा दिखाई दे

यहाँ फ़ुरात है गंगा है और जमुना भी
क़दम क़दम पे मगर कर्बला दिखाई दे

ये शहर शहर-ए-ख़मोशाँ है अहल-ए-दानिश का
कहीं तो एक कोई सर-फिरा दिखाई दे

ये वक़्त का है तक़ाज़ा कि है फ़रेब-ए-नज़र
कि बेटा बाप के क़द से बड़ा दिखाई दे

न जाने कैसा नशा है ग़ज़ल कि ताज-महल
कभी रदीफ़ कभी क़ाफ़िया दिखाई दे
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