Zahid Dar

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Zahid Dar shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Zahid Dar's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
इन्ही सूखे हुए मैदानों में
अब जहाँ धूप की लहरों के सिवा कुछ भी नहीं
सब्ज़ लहराते हुए खेत हुआ करते थे
लोग आबाद थे पेड़ों की घनी छाँव में
महफ़िलें जमती थीं अफ़्साने सुने जाते थे
आज वीरान मकानों में हवा चीख़ती है
धूल में उड़ते किताबों के वरक़
किस की यादों के वरक़ किस के ख़यालों के वरक़
मुझ से कहते हैं कि रह जाओ यहीं
और मैं सोचता हूँ सिर्फ़ अंधेरा है यहाँ
फिर हवा आती है दीवानी हवा
और कहती है: नहीं सिर्फ़ अंधेरा तो नहीं
याद हैं मुझ को वो लम्हे जिन में
लोग आज़ाद थे और ज़िंदा थे
आओ मैं तुम को दिखाऊँ वो मक़ाम.....
एक वीरान जगह ईंटों का अम्बार नहीं कुछ भी नहीं
और वो कहती है ये प्यार का मरकज़ था कभी
किस की याद आए मुझे किस की बताओ किस की!
और अब चुप है हवा चुप है ज़मीं
बोल ऐ वक़्त! कहाँ हैं वो लोग
जिन को वो याद हैं जिन की यादें
इन हवाओं में परेशान हैं आज
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गहरे शहरों में रहने से वुसअ'त का एहसास मिटा
ला-महदूद ख़लाओं की ख़ामोशी का
ख़ौफ़ मिटा

अब आराम है
जंगल का जादू और हवाओं का संगीत नहीं तो क्या है
अब आराम कि अब अज्ञान के पैदा-कर्दा हाथ नहीं
ज़ालिम हाथ कि जिन हाथों में हाथ दिए
मज़हब के वीरानों में मैं मारा मारा फिरता था
अब आराम
समुंदर की आवाज़ नहीं तो क्या है
उस बस्ती की सब गलियों में चलने की आज़ादी है
उस बस्ती की गलियों के नामों में नेकी और बदी के नाम नहीं
सीधे-सादे नाम हैं जैसे लालच ग़ुस्सा भूक मोहब्बत नफ़रत
सब गलियों में चलने की आज़ादी है
शहर नहीं हैं चारों जानिब शोर ही शोर है क्या है

गहरे शहरों में रहने से अज़्मत का एहसास मिटा
लम्बे हमलों पर जाने का क़ुदरत से टकराने का अरमान मिटा
अब आराम है शहरों में इंसान मिटा
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मैं ने लोगों से भला क्या सीखा
यही अल्फ़ाज़ में झूटी सच्ची
बात से बात मिलाना दिल की
बे-यक़ीनी को छुपाना सर को
हर ग़बी कुंद-ज़ेहन शख़्स की ख़िदमत में झुकाना हँसना
मुस्कुराते हुए कहना साहब
ज़िंदगी करने का फ़न आप से बेहतर तो यहाँ कोई नहीं जानता है

गुफ़्तुगू कितनी भी मजहूल हो माथा हमवार
कान बेदार रहें आँखें निहायत गहरी
सोच में डूबी हुई
फ़लसफ़ी ऐसे किताबी या ज़बानी मानो
उस से पहले कभी इंसान ने देखे ने सुने
उन को बतला दो यही बात वगर्ना इक दिन
ओ रूह दिन भी बहुत दूर नहीं
तुम नहीं आओगे ये लोग कहेंगे जाहिल
बात करने का सलीक़ा ही नहीं जानता है
क्या तुम्हें ख़ौफ़ नहीं आता है

ख़ौफ़ आता है कि लोगों की नज़र से गिर कर
हाज़रा दौर में इक शख़्स जिए तो कैसे
शहर में लाखों की आबादी में
एक भी ऐसा नहीं
जिस का ईमान किसी ऐसे वजूद
ऐसी हस्ती या हक़ीक़त या हिकायत पर हो
जिस तक
हाज़रा दौर के जिब्रईल की या'नी अख़बार
दस्तरस न हो रसाई न हो
मैं ने लोगों से भला क्या सीखा
बुज़दिली और जहालत की फ़ज़ा में जीना
दाइमी ख़ौफ़ में रहना कहना
सब बराबर हैं हुजूम
जिस तरफ़ जाए वही रस्ता है
मैं ने लोगों से भला क्या सीखा
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ऐसे लगता है कि सहरा है कोई
दूर तक फैली हुई रेत को जब देखता हूँ
मेरी आँखों में वही प्यास छलक आती है
रूह की प्यास छलक आती है

फिर हवा वक़्त के हाथों में है तलवार की मानिंद रवाँ
फिर सुलगता हूँ फ़क़त मौत मुझे भाती है

दिल मिरा आज भी अफ़्सुर्दा उदास
दिल बदलता ही नहीं
रास्ते रोज़ बदल लेते हैं रूप
रास्ते फ़ैज़ की शाहराह की तरह चूर निढाल

और पतझड़ में बिखरते हुए पत्तों की तरह
लोग ही लोग हैं जिस ओर नज़र जाती है
रोग ही रोग हैं जिस ओर नज़र जाती है
फिर भटकता हूँ फ़क़त मौत मुझे भाती है

गरचे ये ख़ौफ़ कि दीवाना कहेगी दुनिया
गरचे ये डर कि मैं सच-मुच ही न पागल हो जाऊँ
फिर भी ग़म खाने की फ़ुर्सत तो निकल आती है
अपने गुन गाने की आदत ही नहीं जाती है

दूर जाते हुए लम्हों की सदा
गालियाँ मुझ को दिए जाती है

इस से पहले भी जुनूँ था लेकिन
अब के इस तौर से बिखरे हैं हवास
कोई तरतीब नहीं
ऐसे लगता है कि सहरा है कोई
दूर तक फैली हुई रेत को जब देखता हूँ
मेरी आँखों में वही प्यास छलक आती है
रूह की प्यास छलक आती है
ज़िंदगी मेरी धुएँ की सूरत
फैलती और बिखर जाती है
फिर हवा वक़्त के हाथों में है तलवार की मानिंद रवाँ
फिर मैं मरता हूँ फ़क़त मौत मुझे भाती है
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पूरे कुँबे से नफ़रत या प्यार करो
एक से नफ़रत एक से प्यार ये क्या है
लोग सभी इक जैसे हैं
जाहिल हैं तो सब जाहिल हैं आलिम हैं तो सब के सब
ज़ुल्म किसी इक शख़्स से तो मख़्सूस नहीं है
जिस को तुम ज़ालिम कहते हो वो भी
बचपन में मा'सूम था ख़ुश्बू की मानिंद ज़रर से ख़ाली
और जिस को विद्वान हो कहते उस का ज़ेहन
कल तक चट्टे काग़ज़ जैसा निर्मल और बे-दाग़ था
ज़ालिम ने उस कुँबे ही में ज़ुल्म की शिक्षा पाई
और विद्वान ने भी ये उल्टी सीधी बातें
लोगों ही से सुन कर ज़ेहन में भर रखी हैं
ये लोगों का कुम्बा
एक महान दरख़्त है हम सब पत्ते हैं
हरे या सूखे मीठे हैं या कड़वे
अपना क्या है
पेड़ का रस हम सब में यकसाँ जारी-ओ-सारी है
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