Jafar Tahir

Jafar Tahir

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Jafar Tahir shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Jafar Tahir's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ये तो नहीं कि हम पे सितम ही कभी न थे
इतना ज़रूर था कि वो नाग़ुफ़्तनी न थे

ऐ चश्म-ए-इल्तिफ़ात ये क्या हो गया तुझे
तेरी नज़र में हम तो कभी अजनबी न थे

फिरते हैं आफ़्ताब-ज़दा काएनात में
हम पर किसी की ज़ुल्फ़ के एहसाँ कभी न थे

पामाल कर दिया जो फ़लक ने तो क्या कहें
हम तो किसी कमाल के भी मुद्दई' न थे

क्या जुर्म था ये आज भी हम पर नहीं खुला
ये इल्म है कि अहल-ए-जुनूँ कुश्तनी न थे

हर लम्हा तेरे इश्क़ में उम्र-ए-अबद बना
जो दिन भी ज़िंदगी के मिले आरज़ी न थे

मुरझा के भी गई न महक जिस्म-ए-नाज़ की
ये मोतिए के फूल कोई काग़ज़ी न थे

यारान-ए-शहर इश्क़ में बे-आबरू हुए
हम पर तो मेहरबाँ वो कभी थे कभी न थे

इक़्लीम-ए-आशिक़ी को दिया दीन-ए-शाइरी
हम साहिब-ए-किताब थे गरचे नबी न थे

हम जिन की नज़्र करते जवाहर कलाम के
'ताहिर' हमारे शहर में वो जौहरी न थे
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Jafar Tahir
तिश्ना-लबों की नज़्र को सौग़ात चाहिए
तेरे निसार थोड़ी सी बरसात चाहिए

इतना भी मय-कदे पे न पहरे बिठाईए
कुछ तो ख़याल-ए-अहल-ए-ख़राबात चाहिए

आपस की गुफ़्तुगू में भी कटने लगी ज़बाँ
अब दोस्तों से तर्क-ए-मुलाक़ात चाहिए

मुद्दत से चश्म-ओ-दिल में कोई राब्ता नहीं
क्या और तुझ को गर्दिश-ए-हालात चाहिए

किस किस ख़ुदा के सामने सज्दा नहीं किया
कुछ शर्म कुछ तो आबरू-ए-ज़ात चाहिए

ज़िक्र-ए-परी-वशाँ के ज़माने गुज़र गए
अब तो ग़ज़ल में हम्द-ओ-मुनाजात चाहिए

इंसाफ़ की ये आँख ये सूरज की रौशनी
यारब यही है दिन तो मुझे रात चाहिए

हम चाहते हैं दहर में जीने का हक़ मिले
उन को सुबूत-ए-फ़र्रुख़ी-ए-ज़ात चाहिए

कुछ भी हो मस्लहत का तक़ाज़ा मगर नदीम
जो दिल में हो ज़बाँ पे वही बात चाहिए

ऐ ज़ुल्फ़-ए-नाज़ कोई हवा-ए-फ़ुसूँ का दाम
अहल-ए-नज़र को सैर-ए-तिलिस्मात चाहिए

ताब-ए-कमंद-ए-काकुल-ए-ख़म-दार होशियार
खुल कर न हर किसी पे इनायात चाहिए

'ताहिर' जज़ा-ए-हिम्मत-ए-आली है ज़ुल्फ़-ए-यार
ज़ुल्फ़ों से खेलने के लिए हात चाहिए
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Jafar Tahir
ये तमन्ना थी कि हम इतने सुख़नवर होते
इक ग़ज़ल कहते तो आबाद कई घर होते

दूरियाँ इतनी दिलों में तो न होतीं यारब
फैल जाते ये जज़ीरे तो समुंदर होते

अपने हाथों पे मुक़द्दर के नविश्ते भी पढ़
न सही मा'नी ज़रा लफ़्ज़ तो बेहतर होते

दिल पे इक वही और इल्हाम का रहता है समाँ
हम अगर रिंद न होते तो पयम्बर होते

हम अगर दिल न जलाते तो न जलते ये चराग़
हम न रोते जो लहू आइने में पत्थर होते

हम अगर जाम-ब-कफ़ रक़्स न करते रहते
तेरी राहों में सितारे न गुल-ए-तर होते

घर बना बैठे बयाबाँ में दिवाने वर्ना
पाँव उठ जाते तो जिबरील का शहपर होते

सूरतें यूँ तो न यारों की रुलाती रहतीं
ऐ ग़म-ए-मर्ग ये सदमे तो न दिल पर होते

हम रहे गरचे तही-दस्त ही जाफ़र-'ताहिर'
बस में ये बात भी कब थी कि अबूज़र होते
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Jafar Tahir
ये और बात कि ये सेहर बेश-ओ-कम पे चला
सियाह-रात का जादू मगर न हम पे चला

उधर से पहले भी कुछ सरफ़रोश गुज़ारे थे
रह-ए-तलब में निशान-ए-क़दम क़दम पे चला

ये ताइरान-ए-चमन का नसीब क्या कहिए
वो तीर उन के लिए वक़्फ़ है जो कम पे चला

ख़ुदा ख़ुदा के इशारे पे लौट लौट गया
तड़प तड़प के तरीक़-ए-सनम सनम पे चला

कभी ख़ुदा की परस्तिश कभी सना-ए-बुताँ
रह-ए-अरब पे कभी जादा-ए-अजम पे चला

असीर-ए-दाम न होगा मिरा दिल-ए-आज़ाद
किसी का हुक्म कभी मौज-ए-यम-ब-यम पे चला

तुझे भी देख लिया हम ने ओ ख़ुदा-ए-अजल
कि तेरा ज़ोर चला भी तो अहल-ए-ग़म पे चला

ये नक़्श-ए-पा हैं कि ज़ंजीर-ए-मौज-ए-ख़ूँ यारो
ये कौन तुरफ़ा-जवाँ जादा-ए-सितम पे चला

लब-ओ-निगाह पे मोहरें लगी रहीं 'ताहिर'
किसी का ज़ोर न लेकिन मिरे क़लम पे चला
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Jafar Tahir
फिर वही क़त्ल-ए-मोहब्बत-ज़दगाँ है कि जो था
रसन-ओ-दार का आलम में समाँ है कि जो था

उन के हाथों में वही तेग़-ए-सितम है कि जो थी
दहर मातम-कदा-ए-बे-गुनहाँ है कि जो था

चश्म-ए-पुर-ख़ून-ए-वफ़ा लाला-निशाँ है कि जो थी
क़िस्मत-ए-बुल-हवसाँ ऐश-ए-जहाँ है कि जो था

हैरत-ए-अहल-ए-नज़र अहल-ए-हुनर है कि जो थी
शोहरा-ए-कम-नज़राँ बे-हुनराँ है कि जो था

रस्म-ए-आराइश-ए-ऐवान-ए-तरब है कि जो थी
सर-ए-फ़रहाद ये वो कोह-ए-गिराँ है कि जो था

ये शजर हैं कि सलीबें सी गड़ी हैं हर सू
मंज़िल-ए-इश्क़ वही संग-ए-निशाँ है कि जो था

दफ़्तर-ए-लाला-ओ-गुल है न वो दीवान-ए-बहार
ज़ीनत-ए-लौह-ए-चमन हर्फ़-ए-ख़िज़ाँ है कि जो था

ज़ेर-ए-हर-शाख़ शब-ओ-रोज़ क़फ़स ढलते हैं
आलम-ए-नौहा-गराँ बस्ता-पराँ है कि जो था

दौलत-ए-अहल-ए-तलब ख़ार-ए-सितम हैं कि जो थे
चार सू ग़ल्ग़ला-ए-गुल-बदनाँ है कि जो था

साया-ए-मुर्ग़-ए-परीदा है कि ये अब्र-ए-बहार
गिला-ए-मर्हमत-ए-आह-ए-तपाँ है कि जो था

है वही आज भी रंग-ओ-रविश-ए-रूद-ए-फ़रात
हर नफ़स मातमी-ए-तिश्ना-लबाँ है कि जो था

आज भी अर्ज़-ए-वफ़ा उन पे गिराँ है कि जो थी
आज भी हौसला-ए-शरह-ओ-बयाँ है कि जो था

न वफ़ाओं पे नज़र है न जफ़ाओं का मलाल
दिल में वो दर्द वो एहसास कहाँ है कि जो था

सौलत-ओ-सतवत-ए-अर्बाब-ए-हमम मिट के रही
लुट के भी हुस्न-ए-बुताँ हुस्न-ए-बुताँ है कि जो था

है तिरी याद नशात-ए-शब-ए-हिज्राँ कि जो थी
हाँ तिरा दर्द क़रार-ए-दिल-ओ-जाँ है कि जो था

जल्वा-ए-यार से महरूम है ग़म-ख़ाना-ए-दिल
ये वही तीरा-ओ-तारीक मकाँ है कि जो था

वक़्त के साथ बदलता नहीं जाफ़र-'ताहिर'
ये वही सोख़्ता-दिल सोख़्ता-जाँ है कि जो था
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Jafar Tahir
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-जाँ है कि नहीं
दिल-सिताँ सिलसिला-ए-ग़म-ज़दगाँ है कि नहीं

हर नफ़स बज़्म-ए-गुलिस्ताँ में ग़ज़ल-ख़्वाँ था कभी
हर नफ़स नाला-कशाँ नौहा-कुनाँ है कि नहीं

हर नज़र नग़्मा-सरा अंजुमन-आरा थी कभी
हर नज़र हैरती-ए-रंग-ए-जहाँ है कि नहीं

हर ज़बाँ पर था कभी तज़किरा-ए-दौर-ए-बहार
हर ज़बाँ शिकवा-गर-ए-जौर-ए-ख़िज़ाँ है कि नहीं

मय-चकाँ बादा-निशाँ थे लब-ए-गुल-रंग कभी
लब-ए-गुल-रंग पे ज़ख़्मों का गुमाँ है कि नहीं

सुर्मा-ए-चश्म-ए-इनायत की हिकायत छोड़ो
आज हर आँख में आहों का धुआँ है कि नहीं

क़ाफ़िले जाने घटाओं के कहाँ उतरेंगे
हर ख़म-ए-ज़ुल्फ़ ब-हसरत-निगराँ है कि नहीं

दश्त-ए-वहशत से नहीं कम ये जहान-ए-गुल-ओ-बू
सूरत-ए-रेग-ए-रवाँ उम्र-ए-रवाँ है कि नहीं

नग़्मा-ए-बाद-ए-बहारी जिसे तुम कहते हो
जरस-ए-क़ाफ़िला-ए-गुल की फ़ुग़ाँ है कि नहीं

न तो बुलबुल की नवा है न सदा-ए-ताऊस
सेहन-ए-गुलज़ार में अब अम्न-ओ-अमाँ है कि नहीं

मुझ से क्या पूछते हो कौन यहाँ तक पहुँचा
सुर्ख़ी-ए-ख़ार-ए-बयाबाँ से अयाँ है कि नहीं

ज़िंदगी कुछ भी सही फिर भी बड़ी दौलत है
मौत सी शय भी यहाँ जिंस-ए-गिराँ है कि नहीं

सूरत-ए-लुत्फ़-ओ-करम ये हो तो दिल क्यूँ न जले
आग पत्थर के भी सीने में निहाँ है कि नहीं

ज़ुल्म चुप-चाप सहे जाओगे आख़िर कब तक
ऐ असीरान-ए-क़फ़स मुँह में ज़बाँ है कि नहीं

ये अदब-गाह-ए-मोहब्बत है जो चुप हूँ 'ताहिर'
वर्ना याँ कौन सा अंदाज़-ए-बयाँ है कि नहीं
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Jafar Tahir
दोनों हाथों में उठाए हुए भारी पत्थर
मारने आए हैं ईसा को हवारी पत्थर

मैं ने जो तेरे तसव्वुर में तराशे थे कभी
ले गए वो भी मिरे घर से पुजारी पत्थर

आदमी आज कहीं जाए तो क्यूँकर जाए
सर पे सहरा तो ज़मीं सारी की सारी पत्थर

सब से पहले मिरे भाई ने ही फेंका मुझ पर
पहला पत्थर ही मुझे हो गया कारी पत्थर

रहम ऐ गर्दिश-ए-दौराँ ये तमाशा क्या है
फूल से शानों पे करते हैं सवारी पत्थर

जब कोई ग़ुंचा खिला कोई कली चटकी है
ले के पहुँची है वहीं बाद-ए-बहारी पत्थर

दिल है इस आहू-ए-दरमाँदा-ओ-बेकस की तरह
मारते हैं जिसे मिल मिल के शिकारी पत्थर

सीना-ए-संग से दरिया नहीं बहते देखे
कौन कहता है कि हैं दर्द से आरी पत्थर

नाज़ हर बुत के उठा पाए न 'जाफ़र-ताहिर'
चूम कर छोड़ दिए हम ने ये भारी पत्थर
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Jafar Tahir
कहने को तो क्या क्या न दिल-ए-ज़ार में आए
हर बात कहाँ क़ालिब-ए-इज़हार में आए

नज़दीक जो पहुँचे तो वो आहों का धुआँ था
कहने को तो हम साया-ए-दीवार में आए

हर मौजा-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाए तो अच्छा
हर फूल मिरे हल्क़ा-ए-दस्तार में आए

हम अपनी सलीबों की हिफ़ाज़त में खड़े हैं
अब जो भी शिकन गेसू-ए-दिल-दार में आए

पाँव में अगर तौक़-ओ-सलासिल हैं तो क्या ग़म
ऐ हम-सफ़रो फ़र्क़ न रफ़्तार में आए

इक उम्र भटकते हुए गुज़री है जुनूँ में
अब कौन फ़रेब-ए-निगह-ए-यार में आए

ऐ काश कभी उस का इधर से भी गुज़र हो
इक दिन तो सबा लौट के गुलज़ार में आए

जचते भी तो क्या चश्म-ए-ख़रीदार में 'ताहिर'
हम कौन से यूसुफ़ थे जो बाज़ार में आए
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Jafar Tahir
नश्शे में चश्म-ए-नाज़ जो हँसती नज़र पड़ी
तस्वीर-ए-होशयारी-ओ-मस्ती नज़र पड़ी

लहराई एक बार वो ज़ुल्फ़-ए-ख़िरद-शिकार
कोई न फिर बुलंदी-ओ-पस्ती नज़र पड़ी

उट्ठी थी पहली बार जिधर चश्म-ए-आरज़ू
वो लोग फिर मिले न वो बस्ती नज़र पड़ी

हुस्न-ए-बुताँ तो आईना-ए-हुस्न-ए-ज़ात है
ज़ाहिद को उस में कुफ़्र-परस्ती नज़र पड़ी

यारब कभी तू बुल-हवसों को भी दे सज़ा
माना हमारी जान तो सस्ती नज़र पड़ी

सू-ए-चमन गए थे बहाराँ समझ के हम
देखा तो एक आग-परस्ती नज़र पड़ी

कैसी सबा कहाँ की नसीम-ए-चमन न पूछ
नागिन सी फूल फूल को डसती नज़र पड़ी

मुद्दत के बा'द अपनी तरफ़ फिर गया ख़याल
तुम क्या मिले कि सूरत-ए-हस्ती नज़र पड़ी

शबनम की बूँद बूँद ने हँस हँस के जान दी
'ताहिर' किरन किरन भी तरसती नज़र पड़ी
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Jafar Tahir
पिला ऐ गिरोह-ए-सुख़नवराँ कोई शेर-ए-तर गुल-ए-ताज़ा रस
ये बहार में भी ख़मोशियाँ न सर-ए-जुनूँ न पए हवस

ये है मय-कदा जो बढ़ा के हाथ उठा ले जाम उसी का है
न यहाँ पे काविश-ए-बेश-ओ-कम न यहाँ पे तोहमत-ए-पेश-ओ-पस

शरर-ए-तबीअत-ए-आशिक़ाँ सबब-ए-तजल्ली-ए-गुलसिताँ
ये हिना-ए-शौक़ शफ़क़ शफ़क़ ये मय-ए-नशात नफ़स नफ़स

है सियाह-पोश नज़र नज़र है नफ़स नफ़स नए नाला-गर
वही तीरा-बख़्ती-ए-अहल-ए-दिल वही ज़ुल्मत-ए-शब-ए-तार-ओ-बस

तह-ए-तार-ए-किसवत-ए-अन्कबूत ये ताइरान-ए-तरब-नवा
सर तख़्त-ए-फ़र्क़-ए-हुमा हुमा ब-सद आफ़ियत है मगस मगस

ये कमाँ-कशान-ए-ज़ह-ए-ग़ुरूर फिरें हैं किस की तलाश में
वो जो बाग़-ए-जाँ की बहार थे वो बसा चुके हैं क़फ़स क़फ़स

ये फ़ज़ा-ए-दश्त शऊर-ए-बाग़-ए-निशात-ओ-ख़ुल्द-ए-सुरूर है
न सुख़न की हरज़ह-ख़रोशियाँ न लब-ए-सदा न दम-ए-जरस

अभी फूल फूल है जाँ-ब-लब ये तप-ए-बला तपिश ग़ज़ब
अभी खुल के अब्र-ए-करम बरस अभी और खुल के बरस बरस

कभी इस तरफ़ भी गुज़र करो कभी इस तरफ़ भी नज़र करो
मैं फ़क़ीर-ए-गुल-कदा-ए-वफ़ा मिरे बर्ग-ए-साज़ ये ख़ार-ओ-ख़स
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