Daud Nishat

Daud Nishat

@daud-nishat

Daud Nishat shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Daud Nishat's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
महदूद है ये वुसअ'त-ए-आलम भी नज़र में
गुम हो गया हूँ ऐसा तिरी राहगुज़र में

मैं कशमकश-ए-दहर से बे-इल्म हूँ अब तक
तू ख़ुद ही बता कौन है हर चीज़ में शर में

दुनिया मिरे मेआ'र पे उतरेगी न ता-उम्र
ये तो है खिलौना मिरी नम-दीदा नज़र में

अन्क़ा है ज़माने से मुसावात-ओ-उख़ुव्वत
औसाफ़-ए-बशर ढूँडने निकले हो बशर में

तख़्ईल मिरी अर्श का रखती है तक़द्दुस
है रिफ़अत-ए-अफ़्लाक मिरी फ़िक्र के पर में

ले जाएगा तू मुझ को कहाँ ऐ ग़म-ए-हस्ती
साया भी मिरा साथ नहीं अब तो सफ़र में

है नक़्श-ए-कफ़-ए-पा तिरा मंज़िल की बशारत
अब क़ाफ़िले ठहरेंगे मिरी राहगुज़र में

शे'रों में 'निशात' अपने वो लाओगे कहाँ से
जो रंग तग़ज़्ज़ुल का है नग़्मात-ए-‘जिगर’ में
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Daud Nishat
जब तक कि दिल में जज़्बा-ए-दीवानगी न हो
लज़्ज़त-कश-ए-हयात-ए-वफ़ा बे-ख़ुदी न हो

क्या वो करेंगे जल्वा-ए-जानाँ की आरज़ू
जिन की नज़र में जुरअत-ए-नज़्ज़ारगी न हो

घबरा गया हूँ ज़ीस्त की तल्ख़ी से इस क़दर
इस ज़िंदगी के बा'द कोई ज़िंदगी न हो

माना ख़ुशी में होता है बे-ख़ुद हर आदमी
ख़ुद को भी भूल जाऊँ मैं ऐसी ख़ुशी न हो

आ ऐ ग़म-ए-हयात तुझे ढूँढता है दिल
वो ज़ीस्त क्या कि जिस में ग़म-ए-ज़िंदगी न हो

दुनिया की तीरगी को मिटाएँगे किस तरह
जिन के दिल-ओ-निगाह में कुछ रौशनी न हो

रह रह के उठ रहा है हर इक सम्त क्यों धुआँ
नफ़रत की आग शहर में हर-सू लगी न हो

फ़िक्र-ए-सुख़न के वास्ते ग़म चाहिए 'नशात'
जब तक कि दिल में दर्द न हो शाइरी न हो
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Daud Nishat
रौशनी कब थी मिरे दाग़-ए-जिगर से पहले
उस ने पाई है ज़िया शम्स-ओ-क़मर से पहले

अश्क अब तक मिरी आँखों से न बरसे पहले
होंट शबनम के भी इक बूँद को तरसे पहले

जिस की तनवीर में पिन्हाँ थीं हज़ारों ज़ुल्मात
इक सहर ऐसी भी देखी है सहर से पहले

मेरी ख़ुद्दार तबीअत का तक़ाज़ा था यही
आशियाँ फूँक दिया बर्क़-ओ-शरर से पहले

फिर ज़माने की नज़र मेरी तरफ़ क्यों उट्ठी
बच के चलना था मुझे उन की नज़र से पहले

वुसअ'त-ए-कौन-ओ-मकाँ ग़र्क़ हुई है जिस में
ऐसे तूफ़ाँ भी उठे दीदा-ए-तर से पहले

ख़ुल्द कहते हैं जिसे है वो इसी का ख़ाका
इल्म था कब ये तिरी राहगुज़र से पहले

चीर कर ज़ुल्मत-ए-शब वक़्त के तेशे से 'निशात'
इक नई सुब्ह उभारेंगे सहर से पहले
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मिरा वजूद समुंदर नहीं मैं क़तरा हूँ
हर एक मौज की आग़ोश में मचलता हूँ

मैं मुश्त-ए-ख़ाक हूँ गर्द-ओ-ग़ुबार जैसा हूँ
तमाम वुसअ'त-ए-आलम पे फिर भी छाया हूँ

क़ज़ा-ओ-क़द्र का मंज़र मिरी निगाह में है
हयात-वर हूँ अजल से नज़र मिलाता हूँ

ये दहशतों के छलावे ये आफ़तों के पहाड़
ख़ुदा का शुक्र कि इस दौर में भी ज़िंदा हूँ

उड़ाइए न हवाओं में मेरी बातों को
सदा-ए-वक़्त हूँ मैं वक़्त का तक़ाज़ा हूँ

कोई भी रूप हो पहचान लूँगा मैं तुझ को
मैं काएनात की हर चीज़ से शनासा हूँ

अज़ल से है तू मिरे इल्म में की तू क्या है
बता सके तो बता दे मुझे कि मैं क्या हूँ

दिलों में उतरें न क्यों सब के मेरे शेर 'नशात'
जो बात कहता हूँ मैं तजरबे की कहता हूँ
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