कैसे कह दूँ कि मोहब्बत में ख़सारा न हुआ
डूबते को किसी तिनके का सहारा न हुआ
पेश आते हैं वो अब मुझ से रक़ीबों की तरह
एक पल जिन का बिना मेरे गुज़ारा न हुआ
जैसे महफ़िल में वो रिंदाँ से गले लग के मिले
शौक़ ये उन का मेरे दिल को गवारा न हुआ
मुंतज़िर कौन हो हम जैसे ग़रीबों का भला
महफ़िल-ए-यार में जब कोई हमारा न हुआ
वो अभी इश्क़ के अंजाम से वाक़िफ़ ही नहीं
इश्क़ में फ़र्क कहाँ गर वो हमारा न हुआ
अब रुलाते हैं मोहब्बत में जो रोते थे कभी
दिल दुखाने का कभी ऐसा नज़ारा न हुआ
याद आते थे वो हर रोज़ दुआओं में हमें
इश्क़ फिर वैसा कभी हम को दुबारा न हुआ
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