कहाँ हो
न क़ासिद न नामा न पैग़ाम, कहाँ हो
कर के बैठे हैं ख़ुतूत-ए-इंतज़ाम, कहाँ हो
कहाँ हो कि अरसा हुआ
ख़ैर-ओ-आफ़ियत के ख़त आए
तुम न सही तुम्हारी ख़ुशबू लिए
क़ासिदों के मातहत आये
कहाँ हो कि बे-रफ़ू बे-दवा
इक चाक सा सीना लिए
ज़ीना-ज़ीना उतरती है शब
साग़र-ओ-मीना लिए
कहाँ हो कि उम्रें गुज़रीं, ग़म गुज़रे
ज़िंदगी होती रही ज़ाया यूँही
बर्फ़ की तरह सफ़ेद एक जिस्म
रूहें छोड़ चली साया यूँही
कहाँ हो कि तन्हाई गाती है
शहना-ए-वक़्त पे नग़्मा कोई
पढ़ती रहती हैं बेचैनियाँ
दिल के दरूं कलमा कोई
कहाँ हो कि फ़िक्र के सीने में
एक ही चेहरा एक ही ख़याल
मुसलसल रखती है ज़िंदगी
सवाल के बरअक्स कितने सवाल
कहाँ हो कि मोरिद-ए-तक़सीर
हम रहें तो रहें कब तलक
तय नहीं हश्र का रोज़ कहो
हम जियें तो जियें कब तलक
कहाँ हो कि नौ-दमीदा एक ख़्वाब
लेती हैं अंगड़ाईयाँ क्या करें
दिल में उठती हैं रह-रह के
आवाज़नुमा तन्हाईयाँ क्या करें
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