Mahboob Anwar

Mahboob Anwar

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Mahboob Anwar shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Mahboob Anwar's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ये बे-ख़ुलूस है दुनिया न दर-ब-दर जाओ
अब अपना कासा-ए-दिल ले के अपने घर जाओ

चढ़ाव पर है ये दरिया अभी ठहर जाओ
अगर है ख़ुद पे भरोसा तो पार उतर जाओ

फ़क़त मिरे ही लहू की है प्यास ख़ंजर को
तुम अपनी राहों पे बे-ख़ौफ़-ओ-बे-ख़तर जाओ

हर एक चेहरे पे सूरज तलाशने वालो
कहीं न दिन के उजाले में ही बिखर जाओ

तमाम जिस्म मुझे बर्फ़ बर्फ़ लगते हैं
नज़र की धूप समेटे हुए गुज़र जाओ

अँधेरी रातों की पलकें बहुत घनेरी हैं
हमारी आँखों की पुतली में ही ठहर जाओ

मैं काट लूँगा किसी तरह अपनी तीरा-शबी
तुम अपने वास्ते ले कर मिरी सहर जाओ

अब इस के बा'द मुझे कूफ़ियों में घिरना है
यहीं से लौट के वापस ऐ हम-सफ़र जाओ

ये बे-सरों का नगर है तो ये करो 'अनवर'
सर-ए-ख़ुदी को तुम अपने सँभाल कर जाओ
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Mahboob Anwar
मिला के होंटों के ज़हराब आबगीनों में
ये किस ने आग सी भर दी हमारे सीनों में

अब इस के बा'द कोई चेहरा देखना ही नहीं
हम अपनी आँखें भी छोड़ आए मह-जबीनों में

किसी की आँखों में झाँकूँ तो अपना अक्स मिले
अब ऐसे लोग कहाँ हैं तमाश-बीनों में

उन्हीं के तलवों से काँटे लहू नसीब हुए
जो चाँद बोते रहे उम्र भर ज़मीनों में

हलाल रिज़्क़ कभी राएगाँ नहीं जाता
कि च्यूंटियाँ कभी लगतीं नहीं पसीनों में

तबस्सुमों से ही काम उस का चल गया वर्ना
छुपा के लाया था ख़ंजर भी आस्तीनों में

न जाने कौन सी कश्ती में जा के बैठ गया
दुआ-ए-माँ मुतलाशी रही सफ़ीनों में

इन ऊँचे लोगों में 'अनवर' कभी नहीं मिलता
जो इल्म-ओ-फ़न है छुपा बोरिया-नशीनों में
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Mahboob Anwar
हवा-ए-तुंद के झोंके को आज़माऊँगा
मैं इक दिए से हज़ारों दिए जलाऊँगा

मैं शहर शहर सदा पर सदा उठाऊँगा
गलीम-पोश-ए-ग़ज़ल हूँ ग़ज़ल सुनाऊँगा

ये क़िस्त क़िस्त तबस्सुम सुलगते होंटों पर
सजा के अब के भी मैं क़त्ल-गाह जाऊँगा

असीर-ए-गुम्बद-ए-तन्हाई इतना याद रखो
मैं बाज़गश्त नहीं हूँ कि लौट आऊँगा

मैं धूप धूप चलूँगा ये दूसरों के लिए
सड़क के दोनों तरफ़ पेड़ ही लगाऊँगा

बहुत हक़ीर हूँ लेकिन अँधेरी रातों में
मैं जुगनूओं की तरह रोज़ जगमगाउँगा

ये कर्ब कर्ब कहानी ये दार दार सफ़र
मैं अब के लौट के आऊँ तो फिर सुनाऊँगा

मुझे ख़बर है कि हैं साँप इन सूराख़ों में
मगर दोबारा मैं इन से डसा न जाऊँगा

मैं लम्हा लम्हा सज़ाएँ तो काट लूँगा मगर
हिसार-ए-अर्ज़-ए-सुख़न से निकल न पाऊँगा
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