Obaidullah Khan Mubtala

Obaidullah Khan Mubtala

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Obaidullah Khan Mubtala shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Obaidullah Khan Mubtala's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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सद-हैफ़ कि कमज़ोर है चश्मान बुढ़ापा
सुस्ती सती जुम्बिश में है दंदान बुढ़ापा

अज़ बस-कि हुआ हैगा गुज़र फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ का
रौनक़ नहीं रखता है गुलिस्तान बुढ़ापा

अरबल के भँवर में गई है डूब जवानी
जिस वक़्त उठा जग मने तूफ़ान बुढ़ापा

तस्बीह-ओ-मुसल्ला-ओ-असा ऐनक-ओ-रा'शा
जोबन ने दिया भेज ये सामान बुढ़ापा

ग़फ़लत की रुई दूर न की शीशा-ए-दिल सूँ
मय-ख़ाने में मस्ताँ ने सुन इलहान बुढ़ापा

अशआ'र हैं तारीफ़ सपेदी की सरापा
इस वास्ते रंगीं नहीं दीवान बुढ़ापा

जोबन के भवन में लगी है आतिश-ए-गर्मी
छिड़के है तहूर आब ज़मिस्तान बुढ़ापा

गर्दूं की तरह ख़म हुआ क़द क़ौस-ए-क़ुज़ह का
खींचा है मगर ज़ोफ़ सूँ कैवान बुढ़ापा

अमराज़ की अफ़्वाज का यूरिश है बदन पर
इस मुल्क में मग़्लूब है सुल्तान बुढ़ापा

अब बुलबुल-ए-जाँ तंग हुआ तन के क़फ़स में
पर्वाज़ करे देख के ज़िंदान बुढ़ापा

लज़्ज़त नहीं देता है दहन बीच कसू के
ऐ 'मुबतला' क्या सर्द हैगा नान बुढ़ापा
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Obaidullah Khan Mubtala
हुस्न के डंके की धूम जग में पड़ी जा-ब-जा
क्यूँ न बजे दिल मने इश्क़ की नौबत सदा

आशिक़-ए-बे-जाँ ने आज दिल सती ऐ रूह-बख़्श
तुझ कूँ कहा देख कर जान बया मर्हबा

बुलबुल-ए-शीराज़ ने छोड़ दिया इश्क़-ए-गुल
ग़ुंचा-दहन को सुना बात में जब ख़ुश-अदा

सर्व हुआ है खड़ा तेरी तवाज़ो' कतीं
जब सीं सुना बाग़ में क़द को तिरे दिल-रुबा

तेरा दरस पाने को दौड़ कर आया चकोर
बूझ तिरे चेहरे को ग़ैरत-ए-बदरुद्दुजा

शौक़ का नाज़ुक दरख़्त ख़ुश्क हुआ दर्द सूँ
हुस्न के बुस्ताँ में तू चुप से हुआ बेवफ़ा

बाग़ में लाला कहे देख के नर्गिस तरफ़
चश्म का बीमार हो क्यूँकि खड़ा बे-असा

लाफ़ न मार ऐ रक़ीब मज्लिस-ए-उश्शाक़ में
दिल मने बेगाना है तुझ सती वो आश्ना

फूल गया सूँघ मैं तेरे बदन की सो बास
हो के तिरे पास जब मुझ कने आया सबा

बस-कि तिरे आने की बाग़ मने थी ख़बर
शौक़ से बे-इख़्तियार गुल ने कहा हल-अता

मौज-ए-हवादिस सती मुझ कूँ नहीं ग़म कभी
कश्ती-ए-हस्ती उपर बस-कि तू है नाख़ुदा

तान तिरे मुँह से सुन वज्द करे तानसेन
पकड़े अपस कान कूँ जब वो सुने कान्हरा

याद सूँ तेरी जो दिल ख़ाली-ओ-ग़ाफ़िल है नित
उस दिल-ए-बेहोश का नाम है बैत-उल-ख़ला

कूचा-ए-सरबस्ता-ए-ज़ुल्फ़ में हैराँ होवे
इश्क़-ए-सियह-चश्म का जिस का होवे रहनुमा

आँख तिरी सहर को फंदे में दे हिरन कूँ
ज़ुल्फ़ तिरी पेच सूँ दिल को देवे है फँसा

मुजमर-ए-सीना मने क्यूँ न जले जिऊँ सिपंद
दिल कूँ लगी चटपटी जब से हुआ तूँ जुदा

इश्क़ के बीमार कूँ काम तबीबाँ सूँ नईं
वस्ल की तबरीद बिन और नहीं है दवा

हाल मिरे दर्द का पूछ कभी आन कर
लुत्फ़ के क़ानून से मुझ कूँ मिलेगी शिफ़ा

तेरी कमर देख कर दंग हैं बारीक-बीं
क्यूँ न होवे मू-ब-मू तुझ पे फ़िदा 'मुबतला'
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Obaidullah Khan Mubtala
तुझ चेहरा-ए-गुल-रंग नीं ख़ूबाँ को गुल-गूनी दिया
तेरे लब याक़ूत ने मुझ दिल कूँ पुर-ख़ूनी दिया

दीवाना हो घर छोड़ कर जाता रहा सहरा तरफ़
ऐ रश्क-ए-लैला तू ने जब आशिक़ को मजनूनी दिया

मज़मून आली बाँधता हूँ तेरे क़द की वस्फ़ में
मुझ तब्अ' कूँ सोहबत ने तेरी जब से मौज़ूनी दिया

बरजा है गर मग़रूर हूँ अपने दिलाँ में शाइराँ
निर्ख़-ए-सुख़न कूँ तुझ सुख़न-फ़हमी ने अफ़्ज़ूनी दिया

फ़रहत की सूरत नीं नज़र आई मुझे ऐ नूर-ए-चश्म
तेरी जुदाई में मगर आलम को महज़ूनी दिया

दीदार की है इश्तिहा साफ़ ऐ तबीब-ए-मेहरबाँ
तुझ शौक़ ने गोया मुझे मा'जून-ज़रऊ'नी दिया

कहते हैं सारे बरहमन मुझ 'मुबतला' सूँ ऐ सनम
ज़ुन्नार-ए-गेसू खोल तूँ हर दिल कूँ बफ़्तूनी दिया
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Obaidullah Khan Mubtala
तुझ बुत का हूँ मैं बरहमन कर्तार की सौगंद है
जपता हूँ माला यार की ज़ुन्नार की सौगंद है

बाँका हुस्न सुन कर तिरा ख़ूबाँ ने खाया पेच-ओ-ताब
ऐ नुक-पलक तुझ चेहरा-ए-बल-दार की सौगंद है

ख़ूबाँ की ख़ूबी है ख़िज़ाँ तेरी बहार आँगे सदा
आशिक़ कूँ ऐ गुलफ़ाम तुझ रुख़्सार की सौगंद है

रखता हूँ तुझ सूँ चश्म ये दिल ऐ मह-ए-नूर-ए-नज़र
आ के ख़बर इक रोज़ मुझ बीमार की सौगंद है

दरिया-ए-वहदत में तिरे ऐ गौहर-ए-यकता-ए-हुस्न
पाया नहीं सानी तिरा संसार की सौगंद है

बिन हार आए गुल-रुख़ाँ तेरे गले पड़ने कतीं
जीता तो बारे हुस्न के मिज़मार की सौगंद है

शर्मिंदगी सूँ जा छुपाया क़ुव्वत अपनी कान में
सुन कर दुर-अफ़्सानी तिरी गुफ़्तार की सौगंद है

शमशीर-ए-अबरू बाँध कर आया सिपाही नैन का
दो टोक दिल हैं आशिक़ाँ तलवार की सौगंद है

सेहन-ए-चमन में गुल-बदन तन-ज़ेब कीं तुझ जामा कूँ
नैन सुख है तेरा देखना दीदार की सौगंद है

तुझ हिज्र में दिल की फ़ुग़ाँ सूँ आँख नईं लगती कभी
कमख़्वाब है मख़मल मिरा शब-ए-तार की सौगंद है

उश्शाक़ कूँ रुख़्सत किया दे पाँ ख़िरद का यार ने
रोता है निस दिन 'मुबतला' घर-बार की सौगंद है
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Obaidullah Khan Mubtala
फ़रियाद कि वो शोख़ सितमगार न आया
मुझ क़त्ल कूँ ले हाथ में तलवार न आया

मैं पंबा-नमन नर्म किया बिस्तर-ए-तन कूँ
वो पिउ क़दम धरने को यकबार न आया

छुट आह पिछे कौन मिरे दर्द का अहवाल
मुझ दुख की ख़बर लेने वो ग़म-ख़्वार न आया

जाने है वफ़ादार मुझे दिल मने लेकिन
दहशत से रक़ीबाँ की वो नाचार न आया

आराम गया भूक नहीं नींद गई भूल
अफ़्सोस कि वो ताला'-ए-बेदार न आया

बुलबुल की नमन आस है नित बास की मुझ कूँ
सद-हैफ़ मिरे पास वो गुलज़ार न आया

बाज़ार-ए-सुख़न गर्म किया उस की सिफ़त सूँ
मुझ शेर का हैहात ख़रीदार न आया

लिख बार सहा बाग़ में माली का तहूरा
पर सैर कतीं वो गुल-ए-बे-ए-ख़ार न आया

ऐ 'मुबतला' ये बात लिखा दिल के उपर मैं
इक रोज़ मुझ आग़ोश में वो यार न आया
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Obaidullah Khan Mubtala
मिरा प्यारा है ना-फ़रमाँ हमेशा और प्यारों में
नहीं देखा कसू ने लाला-रू ऐसा हज़ारों में

अपस उश्शाक़ कूँ पहचानते हैं ख़ूब ख़ुश-चश्माँ
अजब मर्दुम-शनासी है नराइन के इशारों में

तिरी ज़ुल्फ़ाँ के पेच-ओ-ताब की तारीफ़ कूँ सुन कर
गया पाताल को बासुक ख़जालत खींच मारों में

बसे हैं शौक़ सूँ जा कर गुलों में रात कूँ शायद
कि आती है गुल-अंदामाँ के बासी बास हारों में

डरे क्यूँ शेर-दिल-आशिक़ रक़ीबाँ के बिदकने सूँ
कोई बावर नहीं करता शुजाअ'त इन चकारों में

दराज़ी जब दिया यल्दाँ को तेरी ज़ुल्फ़ लम्बी ने
बुराई तब लगी करने को हर शब बैठ तारों में

अपस कूँ ख़ाक कर गुलज़ार होना है अगर तुझ कूँ
नहीं आया नज़र में सब्ज़ा-ख़ार ऊपर बहारों में

बिला गर्दां हुए गर देख कर आहू अचम्भा नईं
कि होए है महव नर्गिस तेरी अँखियाँ के नज़ारों में

परी-रूयान-ए-गुलशन सूँ ले आई सीम-ओ-ज़र नर्गिस
नज़र-बाज़ाँ बजा गिनते हैं उस कूँ मालदारों में

न कह सीमाब के मानिंद मेरे दिल कूँ ऐ चंचल
तिरा बेताब है मुम्ताज़ सारे बे-क़रारों में

निकलना माह-रू के दाम से दुश्वार है याराँ
रहा है 'मुबतला' का दिल उलझ ज़ुल्फ़ाँ के तारों में
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Obaidullah Khan Mubtala
नज़र मत बुल-हवस पर कर अरे चंचल सँभाल अँखियाँ
कि उस बद-फ़े'ल सूँ खीचेंगी आख़िर इंफ़िआल अँखियाँ

जुदाई से होवे मफ़रूर जाँ क़ालिब के सूबा सूँ
अपस दीदार सूँ करती हैं फिर उस कूँ बहाल अँखियाँ

निगाह-ए-गर्म गुल-रू सीं हुआ रौशन यू माली पर
कि अब सूरज नमन नर्गिस पे लादेंगी ज़वाल अँखियाँ

हुआ मा'लूम बद-काराँ तरफ़ नित सीन करने सूँ
कि रजवारे में बस्ती हैं सिरीजन की जुह्हाल अँखियाँ

जहाँ के रावताँ सूँ ग़म्ज़ा के नेज़ा कूँ चमका कर
नज़र-बाज़ी के मैदाँ बीच करती हैं क़िताल अँखियाँ

मुरव्वत का असर दस्ता नहीं उस शोख़ चितवन में
मगर रखती हैं आशिक़ सूँ अपस दिल में मलाल अँखियाँ

सियह-चश्मी हुई ज़ाहिर ललन की चश्म-पोशी में
छुपाती हैं अपस मुश्ताक़ सूँ अपना जमाल अँखियाँ
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