काश तूफ़ाँ में सफ़ीने को उतारा होता
डूब जाता भी तो मौजों ने उभारा होता
हम तो साहिल का तसव्वुर भी मिटा सकते थे
लब-ए-साहिल से जो हल्का सा इशारा होता
तुम ही वाक़िफ़ न थे आदाब-ए-जफ़ा से वर्ना
हम ने हर ज़ुल्म को हँस हँस के सहारा होता
ग़म तो ख़ैर अपना मुक़द्दर है सो इस का क्या ज़िक्र
ज़हर भी हम को ब-सद-शौक़ गवारा होता
बाग़बाँ तेरी इनायत का भरम क्यूँ खुलता
एक भी फूल जो गुलशन में हमारा होता
तुम पर असरार-ए-फ़ना राज़-ए-बक़ा खुल जाते
तुम ने एक बार तो यज़्दाँ को पुकारा होता
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