Rafi Badayuni

Rafi Badayuni

@rafi-badayuni

Rafi Badayuni shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Rafi Badayuni's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
सुलूक-ए-दोस्त से बेज़ार क्या हुआ हूँ मैं
ख़याल ये है बुलंदी से गिर गया हूँ मैं

बदलते वक़्त ने हर चीज़ को बदल डाला
ख़ुलूस वैसा कहाँ है जो सोचता हूँ मैं

मुझे लगा है कि तहलील हो गया है वजूद
कभी जब उन के ख़यालों में खो गया हूँ मैं

मोहब्बतों का हसीं दौर आने वाला है
ये रुख़ भी उन की अदावत का देखता हूँ मैं

मिरे शुऊ'र में माहौल की है बेचैनी
नवा-ए-वक़्त हूँ इक दर्द की सदा हूँ मैं

शिकायतों में गँवाने से उस को क्या हासिल
ज़रा सा वक़्त मिला है तो आ गया हूँ मैं

रह-ए-हयात के हर मोड़ पर ये लगता है
फ़रेब-कार की बातों में आ गया हूँ मैं

अब अपनी ज़ीस्त की तपती हुई सी राहों पर
किसी दरख़्त के साए को ढूँढता हूँ मैं

मुझे ये तर्ज़-ए-तजाहुल अजीब लगता है
वो कह रहे हैं कहीं आप से मिला हूँ मैं
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Rafi Badayuni
जो ग़म-नसीब हैं क्यों वो ख़ुशी से मिलते हैं
अंधेरे देखिए कब रौशनी से मिलते हैं

जुनून-ए-शौक़ को सहरा-नवर्द पाया है
कुछ उस के रिश्ते भी आवारगी से मिलते हैं

ख़ुलूस भी कोई बंजर ज़मीन है शायद
सुबूत इस के मिरी ज़िंदगी से मिलते हैं

वो बात कह दी जिसे अक़्ल-ओ-दिल क़ुबूल करें
ये दुश्मनी है तो हम दुश्मनी से मिलते हैं

मक़ाम होते हैं दिल के क़रीब भी लेकिन
ग़ुरूर से नहीं वो आजिज़ी से मिलते हैं

पसंद ख़ातिर-ए-अहबाब हों न हों लेकिन
वो लोग भी हैं जो सादा-दिली से मिलते हैं

अमीर लोगों को ऐश-ओ-निशात के सामाँ
ग़रीब लोगों की फ़ाक़ा-कशी से मिलते हैं

ख़ुद अपने आप से अक्सर मिले हैं यूँ भी 'रफ़ी'
कि जैसे लोग किसी अजनबी से मिलते हीं
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Rafi Badayuni
दिलों में जज़्बा-ए-नफ़रत है क्या किया जाए
ज़बाँ पे दा'वा-ए-उल्फ़त है क्या किया जाए

हज़ार क़िस्म के इल्ज़ाम सुन के भी चुप हैं
हमारा जुर्म शराफ़त है क्या किया जाए

न दुश्मनों से अदावत न दोस्तों का लिहाज़
इसी का नाम सदाक़त है क्या किया जाए

हमारे सीने में पत्थर नहीं है ऐ लोगो
हमें भी पास-ए-मोहब्बत है क्या किया जाए

दूकान-ए-इल्म-ओ-हुनर क्यों सजा न ले कोई
ये राज़-ए-इज़्ज़त-ओ-शोहरत है क्या किया जाए

ये इक ख़लिश ये तजस्सुस ये हसरतों का हुजूम
इसी से ज़ीस्त इबारत है क्या किया जाए

बदल के देखे भी उस्लूब तिश्नगी न गई
दिल-ओ-नज़र की हिकायत है क्या किया जाए

मैं ख़ुद ख़ुलूस से अपने बहुत परेशाँ हूँ
अब इस की किस को ज़रूरत है क्या किया जाए

ज़माना-साज़ी को दुनिया हुनर कहे लेकिन
जब इस ख़याल से नफ़रत है क्या किया जाए
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Rafi Badayuni
निगाह-ए-शौक़ तुझे कामयाब किस ने किया
दिल-ए-तबाह को ख़ाना-ख़राब किस ने किया

किताब ग़म की कई लोग लिख रहे थे मगर
हमारे नाम उसे इंतिसाब किस ने किया

ख़मोश दर्द को इज़हार की ज़बाँ दे कर
ख़ुद अपने आप को यूँ बे-नक़ाब किस ने किया

उमीद थी तो मुहाफ़िज़ शिकस्ता कश्ती की
ये क्या बताएँ इसे ज़ेर-ए-आब किस ने किया

इजारा-दारी-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र का झगड़ा था
दिल-ओ-नज़र में ये पैदा हिजाब किस ने किया

सहारा आप की जानिब से कुछ न कुछ तो मिला
मैं इक दुआ था मुझे मुस्तजाब किस ने किया

ये बहस ख़त्म ही हो जाए अब तो अच्छा है
जवाब किस को मिला ला-जवाब किस ने किया

वो शहर जिस से शिकायत है अब नया तो नहीं
ये किस को ज़िद थी उसे इंतिख़ाब किस ने किया
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Rafi Badayuni
जब अपनी ज़ात को समझा तो कोई डर न रहा
जहाँ में कोई परस्तार-ए-अहल-ए-ज़र न रहा

सड़क के काँटे कि जिन पर लहू के छींटे हैं
बता रहे हैं कि इक शख़्स रात घर न रहा

बदलती क़द्रों में ख़ून-ए-जिगर से नामा-ए-शौक़
ये ख़ास तर्ज़-ए-निगारिश भी मो'तबर न रहा

निगाह-ए-नाज़ है मायूस किस तरफ़ जाए
वो अहल-ए-दिल न रहे हल्क़ा-ए-असर न रहा

ख़ुशी के लम्हों से कैफ़-ए-दवाम क्या मिलता
वो रक़्स-ए-जाम भी देखा जो रात भर न रहा

लचक थी जिन में वो पौदे तो अब भी बाक़ी हैं
हवा की ज़द पे जो आया वही शजर न रहा

ज़रा सी देर में मंज़िल को पा लिया उस ने
वो जिस के सर पे कहीं साया-ए-शजर न रहा

ख़िरद का दिल से तअ'ल्लुक़ न कोई रिश्ता है
वो हम-ख़याल भी कब था जो हम-सफ़र न रहा
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Rafi Badayuni
किसी ख़याल में खोने की जुस्तुजू तो करो
किसी से मिलने की पहले कुछ आरज़ू तो करो

हरीफ़ किस लिए ख़ाइफ़ हैं क्यों वो बद-ज़न हैं
उन्हें बुलाओ कभी उन से गुफ़्तुगू तो करो

रहेंगे राह में संग-ए-गिराँ न दीवारें
अमल के जज़्बा को थोड़ा सा जंग-जू तो करो

हयात धूप भी है बादलों का साया भी
वो कोई हाल हो जीने की आरज़ू तो करो

ख़िज़ाँ का दौर ख़िज़ाँ-दीदा क्यों बनाते हो
तुम ऐसे दौर में कुछ ज़िक्र-ए-रंग-ओ-बो तो करो

तुम्हारी ज़ात के भी तुम से कुछ तक़ाज़े हैं
हुआ है चाक जो दामन उसे रफ़ू तो करो

कुछ और वुसअ'त-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र ज़रूरी है
कुछ और ग़म भी अभी दिल के रू-ब-रू तो करो

न काम आए तो बेहतर है जज़्बा-ए-नफ़रत
जो काम लेना है जज़्बे को नेक-ख़ू तो करो
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Rafi Badayuni