Tafzeel Ahmad

Tafzeel Ahmad

@tafzeel-ahmad

Tafzeel Ahmad shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Tafzeel Ahmad's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
पहाड़ों को बिछा देते कहीं खाई नहीं मिलती
मगर ऊँचे क़दम रखने को ऊँचाई नहीं मिलती

अकेला छोड़ता कब है किसी को ला-शुऊर-ए-तन
किसी तन्हाई में भरपूर तन्हाई नहीं मिलती

ग़नीमत है कि हम ने चश्म-ए-हसरत पाल रक्खी है
ज़माने को ये हसरत भी मिरे भाई नहीं मिलती

फुसून-ए-रेग में मौजें भी हैं दलदल भी होते हैं
मगर सहरा समुंदर थे ये सच्चाई नहीं मिलती

तिरी ख़ालिस किरन की आग है तैफ़-ए-तसव्वुर में
क़ुज़ह बनती नहीं मुझ में तो बीनाई नहीं मिलती

निचोड़ी जा चुकी है मिट्टी इकहरा हो गया पानी
अनासिर मिल भी जाते हैं तो रानाई नहीं मिलती

ग़ज़ल कह के सुकूँ 'तफ़ज़ील' मिलता है मगर मिट्टी
इसे लावा उगल कर भी शकेबाई नहीं मिलती
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Tafzeel Ahmad
इक परेशानी अलग थी और पशेमानी अलग
उम्र भर करते रहे हम दूध और पानी अलग

रेत ही दोनों जगह थी ज़ेर-ए-मेहर-ओ-ज़ेर-ए-आब
मिस्रा-ए-ऊला से कब था मिस्रा-ए-सानी अलग

दश्त में पहले ही रौशन थी बबूलों पर बहार
दे रहे हैं शहर में काँटों को सब पानी अलग

कुछ कुमक चाही तो ज़म्बील-ए-हवा ख़ाली मिली
घाटियों में खो गया नक़्श-ए-सुलैमानी अलग

रेत समझौते की ख़ातिर नाचती है धूप में
बादलों की ज़िद जुदा है मेरी मन-मानी अलग

मुद्दई हैं बर्फ़ बालू रात काँटे तप हवा
जिस्म पर है फ़ौजदारी जाँ पे दीवानी अलग

वो फ़लक संगीत में मिट्टी की धुन तो क्या हुआ
सारेगामा से कहीं होता है पाधानी अलग

फ़न में ताक़त-वर बहाव चश्म-ए-दो-आबा का है
'ज़ेब-ग़ौरी' से कहाँ 'तफ़ज़ील' हैं 'बानी' अलग
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Tafzeel Ahmad
मेहवर पे भी गर्दिश मिरी मेहवर से अलग हो
उस बहर में तैरूँ जो समुंदर से अलग हो

अपना भी फ़लक हो मगर अफ़्लाक से हट के
हो बोझ भी सर का तो मिरे सर से अलग हो

मैं ऐसा सितारा हूँ तिरी काहकशाँ में
मौजूद हो मंज़र में न मंज़र से अलग हो

दीवार-ए-नुमाइश की ख़राशों का हूँ मैं रंग
हर लम्हा वो धागा है जो चादर से अलग हो

उस आतिश-ए-अफ़्सूँ को कोई कैसे बुझाए
जिस आग में घर जलता हो वो घर से अलग हो

छतरी रखूँ उस अब्र-ए-सियह-गाम की ख़ातिर
कूफ़ी भी न हो और बहत्तर से अलग हो

रब और तमन्ना-ए-दुई वहम-ए-बशर है
हम-ज़ाद तो क्या अक्स भी दावर से अलग हो

दामन में वो दुनिया है जो दुनिया से जुदा है
आए वो क़यामत भी जो महशर से अलग हो

पारे की तरह शहर का बिखराओ है 'तफ़ज़ील'
ऐसा कोई बतलाओ जो अंदर से अलग हो
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लब-ए-मंतिक़ रहे कोई न चश्म-लन-तरानी हो
ज़मीं फिर से मुरत्तब हो फ़लक पर नज़र-ए-सानी हो

अभी तक हम ने जो माँगा तिरे शायाँ नहीं माँगा
सिखा दे हम को कुन कहना जो तेरी मेहरबानी हो

ख़स-ए-बे-माजरा हैं ख़ार बे-बाज़ार हैं तो क्या
नुमू-शहकार हम भी हैं हमारी भी किसानी हो

मिलेंगे धूप की मारी चटानों में भी ख़्वाब-ए-नम
कोई ख़ुश्की नहीं ऐसी जहाँ तह में न पानी हो

लहू को भी तनफ़्फ़ुस ही रवाँ रखता है ख़लियों में
बहे सहरा में भी कश्ती अगर ज़ोर-ए-दुख़ानी हो

बड़ा सुरख़ाब पर निकला बदन का ख़ूँ-चकाँ रहना
शफ़क़ सय्याह की लाज़िम थी रंगत अर्ग़वानी हो

तख़ातुब के लिए 'तफ़ज़ील' अबजद मेरे हाज़िर हैं
कोई नक़्क़ारा-ख़ाना हो कि बैत बे-ज़बानी हो
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वही बे-लिबास क्यारियाँ कहीं बेल बूटों के बल नहीं
तुझे क्या बुलाऊँ मैं बाग़ में किसी पेड़ पर कोई फल नहीं

हुए ख़ुश्क बहर तो क्या हुआ मिरी नाव ज़ोर-ए-हवा पे है
मिरे बादबाँ हैं भरे हुए सो बला से रेत में जल नहीं

है दबाव अश्रा हवास पर हैं तमाम उज़्व खिंचे रबर
हूँ उथल-पुथल से घिरा मगर मुझे इज़्न-ए-रद्द-ए-अमल नहीं

किसी बे-ग़ुरूब निगाह से किसी ला-ज़वाल शुआ' में
सभी ज़ावियों से अलग-थलग मुझे हल करो मिरा हल नहीं

तिरी नींद से बड़ी आँख में मुझे ताबकार करे किरन
मुझे ऐसी धात का क़ल्ब दे जिसे ख़ौफ़-ए-रद्द-ओ-बदल नहीं

कहीं पानियों में बिछी न हो कभी साहिलों सी खुली न हो
वो ज़मीं दे मेरे जहाज़ को जहाँ दूसरे की पहल नहीं

सभी सर्द-ओ-गर्म इबारतें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द का हैं ज़ाहिरा
जिसे तख़लिए की अमीं कहूँ वो सुनाने वाली ग़ज़ल नहीं
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