Waqar Khan

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@waqar-khan

Waqar Khan shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Waqar Khan's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
ऐ आरज़ू-ए-हयात
अब की बार जान भी छोड़
तुझे ख़बर ही नहीं कैसे दिन गुज़रते हैं
ऐ आरज़ू-ए-नफ़स
अब मुआ'फ़ कर मुझ को
तुझे ये इल्म नहीं कितनी महँगी हैं साँसें
कि तू तो लफ़्ज़ है
बस एक लफ़्ज़ अध-मुर्दा
तिरे ख़मीर की मिट्टी का रंग लाल गुलाल
सुलगती आग ने तुझ को जना है और तू ख़ुद
इक ऐसी बाँझ है जिस से कोई उम्मीद नहीं
तू ऐसा ज़हर है जो पी के कोई भी इंसाँ
ख़ुद अपने आप को कोई ख़ुदा समझता है
तू इक शजर है जो बस धूप बाँटता ही रहे
तू इक सफ़र है जो सदियों से बढ़ता जाता है
तू ऐसा दम है जो मुर्दों को ज़िंदा करता है
तू वो करम है जो हर इक करीम माँगता है
तू वो तलब है जिसे ख़ुद ख़ुदा भी पूजते हैं
तू वो तरब है जिसे ख़ुद ख़ुशी भी माँगती है
तू मुझ को जितने भी अब शोख़ रंग दिखलाए
तू चाहे ज़िंदगी को मेरे पास ले आए
वक़ार अब तिरे क़दमों में गिरने वाला नहीं
ऐ आरज़ू-ए-हयात
अब मैं पहले वाला नहीं
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Waqar Khan
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ख़ला की मुश्किलात अपनी जगह क़ाएम थीं और दुनिया
उजड़ती भरभरी बंजर ज़मीनों की निशानी थी
सितारे सुर्ख़ थे और चाँद सूरज पर अँधेरों का बसेरा था
दरख़्तों पर परिंदों की जगह वीरानियों के घोंसले होते
ज़मीं की कोख में बस थूर था और ख़ार उगते थे
हवा को साँस लेने में बहुत दुश्वारियाँ होतीं
तो फिर उस नूर वाले ने कोई लौह-ए-अनारा भेज दी शायद
अँधेरे रौशनी पे किस तरह ईमान ले आए
बलाएँ किस तरह परियों की सूरत में चली आईं
ये किस नौरल सुवैबा की ख़ुदा तख़्लीक़ कर बैठा
ये नर्मी दिलबरी शर्म-ओ-हया तख़्लीक़ कर बैठा
वो नौरल वो सुवैबा जिस की ख़ातिर आसमाँ से रंग उतरे थे
वो जिस के दम से दुनिया पर नज़ाकत का वजूद आया
ख़ुदा-ए-ख़ल्क़ ने नौरल से पहले ही हवस तख़्लीक़ कर दी थी
नज़ाकत तक हवस की दस्तरस तख़्लीक़ कर दी थी
हज़ारों साल गुज़रे हैं मगर फ़ितरत नहीं बदली
निगाहें अब भी भूकी हैं कि जैसे खा ही जाएँगी
हवस-ज़ादों ने कैसे नूर से मुँह पर मली कालक
हर इक रिश्ता ज़रूरत के मुताबिक़ किस लिए बदला
हवस-ज़ादो बदन-ख़ोरो ज़रा सी शर्म फ़रमाओ
वो नौरल वो सुवैबा रौशनी का इस्तिआ'रा थी
कभी हव्वा कभी मरियम कभी लौह-ए-अनारा थी
वो औरत थी
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Waqar Khan
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मैं मोहब्बत के सितारों से निकलता हुआ नूर
हक़-ओ-नाहक़ के लिबादों में छुपा एक शुऊ'र
मेरे ही दम से हुआ मस्जिद-ओ-मंदिर का ज़ुहूर
मैं मुस्लमान-ओ-बरहमन के इरादों का फ़ुतूर
मैं हया-ज़ादी-ओ-ख़ुश-नैन के होंटों का सुरूर
किसी मजबूर तवाइफ़ की निगाहों का क़ुसूर
मेरी ख़्वाहिश थी कि मैं ख़ुद ही ज़मीं पर जाऊँ
और ज़मीं-ज़ाद का ख़ुद जा के मैं अंजाम करूँ
वो ज़मीं-ज़ाद कि एहसान-फ़रामोश है जो
वो ज़मीं-ज़ाद कि जो ख़ुद ही ज़मीं पर उतरा
और ज़मीं वो जो वफ़ादार नहीं हो सकती
वो ज़मीं जिस पे कई ख़ून के इल्ज़ाम लगे
वो ज़मीं जिस ने यहाँ देखे हैं कटते हुए सर
वो ज़मीं देती रही है जो गुनाहों को पनाह
वो ज़मीं जिस ने छुपाए हैं कई राज़-ओ-नियाज़
साज़िशें होती रहीं जिस पे मोहब्बत के ख़िलाफ़
और वो चुप है उगलती ही नहीं एक भी लफ़्ज़
मसअला ये है कि अब किस से गवाही माँगूँ
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Waqar Khan
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