झील सी आँखों में ग़ोते खा रहे हैं क्या करें

  - kapil verma

झील सी आँखों में ग़ोते खा रहे हैं क्या करें
इनमें मचली मौज से टकरा रहे हैं क्या करें

अब नहीं जीना मयस्सर इस अज़िय्यत में यहाँ
बस मुसलसल साँस लेते जा रहे हैं क्या करें

गुल हुई है जब से बिजली शहर-ए-दिल में आदतन
शाइरी की शमअ हम सुलगा रहे हैं क्या करें

मुफ़लिसी को जुर्म में शामिल किया है आजकल
मेहनती को दार पर लटका रहे हैं क्या करें

कर दिया रुख़्सत उसे अब हाल मेरा छोड़िए
ग़ैर भी पुर-अश्क हो चिल्ला रहे हैं क्या करें

हुस्न तो ले आए पैसों की बदौलत वो मगर
हाए ये अख़्लाक़ सब बतला रहे हैं क्या करें

उम्र से पहले बड़ा होना पड़ा था तब हमें
अन्दर अब बचपन हमीं दफ़ना रहे हैं क्या करें

  - kapil verma

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