शाम उतरी आसमाँ से याद उनकी आ गई
और आँखों की नमी इन कागज़ों पे छा गई
इक सियाही छा गई उस आसमाँ के शहर में
एक काली रात मेरे दिल पे भी गहरा गई
हम दरख़्तों को भी यादें अपनों की आने लगी
पास के जंगल की ख़ुश्बू जो हवा महका गई
एक तो पहली मोहब्बत फिर कमी दिलदार की
तीसरी तन्हाई मिलकर जान मेरी खा गई
माँ ने पूछा क्यूँ ख़फ़ा हो बात भी करते नहीं
इतने में आँखों से मेरे शायरी उतरा गई
माँ को शक था बस यही हम भी मोहब्बत-बाज़ है
उस पे मेरी शायरी उनको यक़ीं दिलवा गई
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