जवानी ज़ीस्त का ही एक हिस्सा है
पर इसने मेरा बचपन मुझसे छीना है
बजाए ख़ुदकुशी के देखकर शीशा
वो जी भर के अगर रो ले तो अच्छा है
पकड़कर एक उँगली इन किनारों की
नदी ने धीरे धीरे चलना सीखा है
उतरते ही ज़मीं पे रात ने देखा
थका-हारा सा दिन मिट्टी पे सोया है
ख़ुद अपने बच्चे को ही गोद में लेके
मुझे इक अच्छा बेटा बनना आया है
मेरी आँखें मुझे समझे न समझे पर
मेरे आँसू का हर क़तरा समझता है
ज़रा सी बात पर दिल दुखता है 'अबतर'
ये कोई कह दे तो दिल और दुखता है
As you were reading Shayari by Achyutam Yadav 'Abtar'
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