नहीं इल्म मुझको यहाँ पे ख़ुद का कि होता है मिरे साथ क्या
न खिला है दिल में कोई भी गुल हुई जब से एक कली ख़फ़ा
हूँ मैं जिसके आरज़ू-ओ-तलब में दिवाना अब मुझे ग़म ये है
है गँवाया उस को जो सामने से तलब-ज़दा था कभी मिरा
अना वज्ह बन गई फ़ासले की कि कौन आए मनाए अब
उसे भी नहीं पता मैं भी भूल गया कि क्या था वो मसअला
तू उदासी ओढ़े तो शाम हो मिरी बंद आँख करे तो रात
तिरे रंग-रूप से सुब्ह तू मिरी नाज़नीं मिरी दिलरुबा
वो यज़ीद तो गला काट के भी हुसैन से गया हार जंग
जहाँ भर में जाना गया तो सिर्फ़ हुसैन नाम से कर्बला
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