सभी ने देखा बस बस्ती में है सारा का सारा दुख
महल ने तो दबा डाला महल में ही महल का दुख
किसी ओशो को सुन मैंने पराया कर दिया था दुख
मगर अब दुख ये है जैसा भी था पर था तो मेरा दुख
हज़ारों रेप रोके एक कोठे वाली औरत ने
कभी सोचा है कितना भारी होगा वेश्या का दुख
मेरा हर दिन वही दुख याद कर के कट रहा है जाँ
कि जो तेरे नज़रिए से ले दे इक रात का था दुख
ग़ज़ल भी मर्सिया हो जानी मेरे हाथ से इक दिन
सभी रोएँगे गर मैंने सुना डाला जो अपना दुख
तेरे बच्चे अगर पूछे कभी तुझसे कि दुख मतलब
उन्हें समझाना मेरा और मेरी शाइरी का दुख
किसी का दुख किसी से भी नहीं है कम मगर फिर भी
सभी को लगता हाए-हाए सब से भारी मेरा दुख
किसे मालूम आगे को मयस्सर ही न हो दुख ही
सो मुस्तक़बिल के ख़ातिर मैं ने कितना ही बचाया दुख
सियासत इसलिए उलझा रखे हैं मसअले दूजे
कि जनता को सदा भारी लगे दैर-ओ-हरम का दुख
तेरे दुख से ग़ज़ल होती मेरी हासिल सो ख़ुश हूँ जान
तेरे दुख से नहीं होता मुझे गर दुख तो होता दुख
बिना मौसम बरसने वाले बादल तू कभी तो देख
किसानों की बरसती आँखों में बिगड़ी उपज का दुख
मुझे वैसे तो है ग्यारह महीनों का भी पर फिर भी
मुझे खाता है अंदर से दिसम्बर से जो मिलता दुख
तुम्हें तो सुननी है केवल ग़ज़ल फिर घर को जाना है
कोई शायर जी हाँ शायर ही समझेगा ग़ज़ल का दुख
सुख़न का पेशा इकलौता है ऐसा पेशा दुनिया में
कि हो जिसमें हमें महसूस अपना सा पराया दुख
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