यार मैं चुपचाप ही अब के यहाँ पर तो रहूँगा
मैं ज़मीं को आसमाँ से एक दिन मिलवा ही लूँगा
जो उगलते जा रहे हैं रोज़ पत्थर मेरी ख़ातिर
देखना मैं नींव सुंदर से महल की ही रखूँगा
यार गर वो हैं यहाँ पर बेवफ़ा तो क्या मगर फिर
मैं तो अपनी यूँ वफ़ा के दायरे में ही रहूँगा
वो मुसलसल ही रुलाता है मुझे हर दिन यहाँ तो
मैं नहीं उसकी कोई भी चोट फिर से अब सहूँगा
चाँद तारे ये ज़मीं ये आसमाँ बोला मगर फिर
आस्तीं का साँप अब मैं यार उसको ही कहूँगा
छोड़कर वो घर को मेरे क्या गया है मैं मगर अब
उसके ख़ातिर बंद दरवाज़े हमेशा ही रखूँगा
साथ ग़ैरों के रहे वो मुझको इससे क्या मगर फिर
अब ख़यालों से किनारा भी यहीं हर रोज़ दूँगा
चीर कर मैं अब अँधेरे को यहाँ पर दोस्तों फिर
यार सारे ही ज़मीं में रौशनी को मैं करूँगा
Read Full