आबरू जब लुट रही थी लोग कुछ अपने वहीं थे
थे सभी अपने मगर सब ग़ैर थे अपने नहीं थे
पारसाई की मुझे इबरत मिली थी जिस जगह पर
देह थी बिखरी वहीं ख़ूँ में सने कपड़े कहीं थे
बे-ज़बाँ से ख़ौफ़ खाती बस रही मैं बे-वजह ही
था नहीं मालूम आदम-ख़ोर सब रहते यहीं थे
थे चहकते हम जहाँ आज़ाद पंछी एक जैसे
पर कटाए उस क़फ़स में लाश जैसे हम वहीं थे
ये नहीं लाज़िम सभी को हो कफ़न हासिल जहाँ में
मैं दरूॅं में थी मगर इस लाश के वारिस नहीं थे
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