रंग ख़ूबी क़ौम मिल्लत ढंग देखा कुछ नहीं था
जब मिले थे ज़ात मज़हब धर्म सोचा कुछ नहीं था
वो लिए बैठा हुआ था नागवारी रब्त की पर
ये रवैया ज़ोम उस का मैंने परखा कुछ नहीं था
ले गए थे साथ हम गुलज़ार अपनी रूह यारो
घर निकलते वक़्त देखा मुझ मे ज़िंदा कुछ नहीं था
मैं चला आया वहाँ से ख़ुद घसीटे लाश अपनी
और वो ये सोचता है मुझ में टूटा कुछ नहीं था
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