मिरी आँखों को नए ख़्वाब दिखाने वाले
तू कहाँ है मुझे दीवाना बनाने वाले
अब तो हर रात तिरी याद रुलाती है मुझे
मुझ को इस दुख भरी दुनिया में हँसाने वाले
अब मदद की भी तो क्या ख़ाक मदद की तूने
आख़िरी वक़्त में इम्दाद को आने वाले
तुझ को इस दौर में हक़ छीनना होगा अपना
अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाले
मिरी इमदाद की आवाज़ तो सुनते हैं मगर
कैसे चुपचाप खड़े हैं ये ज़माने वाले
हम ने लफ़्ज़ों को ही ख़ंजर सा बना रक्खा है
हम नहीं हाथ में पत्थर को उठाने वाले
कोई उस्ताद हमारा न कोई रहबर है
हज़रत-ए-वक़्त हैं सब हम को सिखाने वाले
उन को घर-बार चलाना भी नहीं आता है
'सैफ़' जो बन गए सरकार चलाने वाले
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