कोई मज़लूम पे जब ज़ुल्म-ओ-सितम ढाता है
काँप उठती है ज़मीं आसमाँ थर्राता है
गुल अगर शाख़-ए-शजर पर कोई मुरझाता है
तितलियाँ रोती हैं और बाग़बाँ ग़म खाता है
देखकर हज़रत-ए-दिल इस तरह ग़मगीन तुम्हें
ख़ुदकुशी करने का बस मन में ख़याल आता है
तुमने जाते हुए चूमा था जो गुल काग़ज़ का
आज तक कमरे को वो गुल मेरे महकाता है
सब हक़ीक़त है जो यारों से सुना है मैंने
नाम सुनकर वो मेरा आज भी शरमाता है
पहले पढ़ता था मोहब्बत के क़सीदे वो जवाँ
और अब लफ़्ज़-ए-मोहब्बत भी घबराता है
ऐ ख़ुदा इस दिल-ए-नादाँ को सँभालूँ कैसे
हुस्न को देख के पागल ये मचल जाता है
मैं ख़यालों में तेरी आँखों के खो जाता हूँ
जाम जब साक़ी कभी सामने छलकाता है
नेकी करने पे ज़माने में बदी मिलती है
अपनी नेकी का कहाँ कोई सिला पाता है
शिद्दत-ए-दर्द से वो चीख़ने लगता है शजर
गर कोई नेज़ा मेरे सीने से टकराता है
बिन तेरे दीद के मछली सी तड़पती हैं शजर
दीद करके तिरा आँखों को सुकूँ आता है
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