खुरच के देख लो तुम सिर्फ़ ख़ार निकलेगा
मेरे बदन से उसी का ग़ुबार निकलेगा
नसें निचोड़ लो चाहे यक़ीं जो हो न तुम्हें
मेरी रगों से वो ही बे-शुमार निकलेगा
मरीज़-ए-इश्क़ हूँ मुझ पे न जाँच ज़ाया करो
कमी न कोई, न कोई बुख़ार निकलेगा
न कोई अक्स न चेहरा न कोई सुब्ह-ए-वस्ल
इन आँखों में तो फ़क़त इंतज़ार निकलेगा
कभी उधेड़ना तुरपाईयाँ बदन की मेरे
मुझी से रब्त मेरा तार तार निकलेगा
न तख़्त-ओ-ताज कोई और न कोह-ए-नूर कोई
कि मैं हूँ शाह वो सर जिसके बार निकलेगा
अगर समझ गए हाथों के काँपने का सबब
हर इक शिकारी में भी इक शिकार निकलेगा
तेरे सताए हुए वहशियों के सीनों में
न कुछ भी निकला तो इक ग़म-गुसार निकलेगा
किसी पे हक़ वो जताए, न ये उमीद करो
'सफ़र' तो ख़ुद से भी बे-इख़्तियार निकलेगा
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