इसलिए भी अब तलक तन्हा हूँ मैं
अपना सानी ढूँढता रहता हूँ मैं
क्यों नहीं होती है उसके दिल में राह
कोशिशों पर कोशिशें करता हूँ मैं
भेद कितने होते हैं मुझ पर अयाॅं
उसका चेहरा जब कभी पढ़ता हूँ मैं
पूछता है जब भी वो अहद-ए-वफ़ा
अपनी बगलें झाँकता रहता हूँ मैं
हम-ख़याल ऐसा कि यूँ लगता है अब
आईने के सामने बैठा हूँ मैं
एक सहरा है वो पर सैराब है
एक दरिया हूँ मगर प्यासा हूँ मैं
ये तो पढ़ने वालों पर है मुनहसिर
इक हक़ीक़त हूँ या इक क़िस्सा हूँ मैं
दिलनशीं तो है ये आधा चाँद पर
चौदहवीं के चाँद पर मरता हूँ मैं
As you were reading Shayari by ZARKHEZ
our suggestion based on ZARKHEZ
As you were reading undefined Shayari