सर्द रुतों की रंगत जब चारों जानिब बढ़ जाती है - ZARKHEZ

सर्द रुतों की रंगत जब चारों जानिब बढ़ जाती है
इक कश्मीरन पश्मीना की शॉल बेचने आती है

लोग ये इक जुमला दोहरा कर मुझसे कटते जाते हैं
दिल का अच्छा शख़्स है लेकिन थोड़ा सा जज़्बाती है

उस से बिछड़े एक ज़माना गुज़र गया पर ख़्वाबों में
अक्सर वो मेरे शाने पर सर रख कर सो जाती है

मुझको अपनी ज़ात से वहशत होती है जब देखता हूँ
धूप तेरा चेहरा कितनी आसानी से छू आती है

एक मुहब्बत है जिसका इज़हार नहीं होता मुझसे
एक मसाफ़त है जो मुझसे ख़त्म नहीं हो पाती है

एक ख़ुशी होठों पे जो आने से है महरूम मेरे
एक उदासी है जो मुझमें रक़्स नहीं कर पाती है

कभी तो उसके छूने भर से ऐसे करिश्मे होते हैं
शाख़-ए-दिल पर पतझड़ के मौसम में कोपल आती है

रफ़्ता रफ़्ता टूट रहे हैं गुंबद उसकी यादों के
धीरे धीरे दिल की दिल्ली सूनी होती जाती है

इतने पेच-ओ-ख़म होते हैं कुछ लोगों के जीवन में
इक लम्हा भी ग़ौर करो तो हैरानी बढ़ जाती है

कल किसकी आग़ोश में गुज़री थी मेरी आवारा शब
ये किसके बिस्तर की ख़ुशबू मेरे बदन से आती है

मैं समझा था ये चिंगारी मुझको राख बना देगी
लेकिन ये लड़की तो मेरी फ़ितरी आग बुझाती है

मुझसे वस्ल के लम्हों में भी कैसा शल है उसका बदन
आग के छूने से तो सुना था हर इक शय जल जाती है

ला-हासिल चेहरों के यूँ ही ख़्वाब न देखा कर 'ज़रख़ेज़'
ये वो इमारत है जो आँखें खुलते ही ढह जाती है

- ZARKHEZ
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