अपना वो हम-सफ़र कभी बीच सफ़र न छोड़ना
राह में होंगी मुश्किलें यार मगर न छोड़ना
खिलते दिखे जो बर्ग-ओ-गुल देख शजर था ख़ुश मगर
तेज़ हवा को हुक्म था बस ये शजर न छोड़ना
आँखें कभी जो थीं उदास उन में चमक सी आई अब
उन को उदास अब कभी बार-ए-दिगर न छोड़ना
जाग न जाए फिर तलब ज़ुल्फ़ें ये अपनी बाँध लो
ज़ुल्फ़ें ये अपनी अब कभी ता-ब-कमर न छोड़ना
सब की है इक ही ज़िंदगी जीने में कैसी शर्म फिर
जी लो ये ज़िंदगी मगर मौत का डर न छोड़ना
खेंचना अपनों पर कमाँ अपने ही तो सिखाते हैं
अपने ही फिर ये कहते हैं तीर इधर न छोड़ना
अब ये विसाल भी मुझे चाहिए तो नहीं था पर
आ ही गए हो तो मिलो पर कुछ असर न छोड़ना
सब्र के इस दरख़्त में ऊपर उगे हैं सब समर
गोया लगेगी देर पर कोई समर न छोड़ना
कातिब-ए-बख़्त क्या पता मंज़िलें आगे लिख ही दे
देखो न मंज़िलों को बस राह-गुज़र न छोड़ना
ऐब तो यूँ हज़ार हैं तुम में बसे हुए मगर
'ज़ान' भले हो इक हुनर 'ज़ान' हुनर न छोड़ना
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