वफ़ा की सम्त अज़ीयत के सिवा कुछ भी नहीं
जो भी उस ओर गया उसका रहा कुछ भी नहीं
जिसे हम देखके हो जाते थे बेसुध से कभी
उसकी आँखों के मुक़ाबिल ये नशा कुछ भी नहीं
कैसे कह दूँ के मेरा उस से तअल्लुक़ ही नहीं
मैंने उसके सिवा तो यारों लिखा कुछ भी नहीं
वो भी बेचैन रहा जिसने मुहब्बत नहीं की
इश्क़ जिसने भी किया उसका बचा कुछ भी नहीं
एक रहज़न मेरे दिल को यूँ गया लूट के दोस्त
कि सिवा ग़म के मेरे दिल में बचा कुछ भी नही
हम ग़म-ए-हस्ती से उकताए भी जाएँगे कहाँ
चारा-ए-ज़िन्दगी मरने के सिवा कुछ भी नहीं
वो गया तो मेरा दिल भी नहीं लौटाके गया
यारों इसके सिवा तो उससे गिला कुछ भी नहीं
मैं भला क्यों न करुँ ज़िन्दगी से शिकवा कोई
ज़िन्दगी ने सिवा गम मुझको दिया कुछ भी नहीं
यारों फिलहाल तो मैं ऐसे सफ़र में हूँ जहाँ
मेरी मंज़िल कहाँ है मुझको पता कुछ भी नहीं
सोचता हूँ के दिल-ए-ख़स्ता को दफ़ना दूँ कहीं
इस ग़म-ए-दिल की वगरना तो दवा कुछ भी नहीं
आज वो ही हमें मरने की दुआ देता है
जो कभी कहता था हमसे के दुआ कुछ भी नहीं
ख़त जलाने से कहाँ जलती हैं यादें आख़िर
ख़ाक-बेज़ी के सिवा हमको मिला कुछ भी नहीं
तुमने जिसको था बनाया कभी अपने हाथों
सो वही आदमी कहता है ख़ुदा कुछ भी नहीं
अब उसे क्या कहूँ आख़िर के मुहब्बत क्या है
प्रिंस जिसको ये भरम है कि वफ़ा कुछ भी नहीं
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