आजकल मेरे महबूब सर पर हुस्न-ए-आलम उठाए हुए हैं - Prashant Kumar

आजकल मेरे महबूब सर पर हुस्न-ए-आलम उठाए हुए हैं
साल-भर में दिखा आज उनको इसलिए मुँह फुलाए हुए हैं

और होगी क़यामत सुना है एक तिल और उनकी कमर पर
देखने के लिए मो'जिज़ा ये लोग जन्नत से आए हुए हैं

एक तो है भयंकर की गर्मी पाँव जलने लगे जब धरे तो
और ऊपर से महबूब मेरे गर्म टोपा लगाए हुए हैं

कल सुना था मिरी लाश को भी ख़ार से ही गुज़रना पड़ेगा
इस हज़र से ही राह-ए-फ़ना में बाग़ ए-रिज़वाँ बिछाए हुए हैं

लाल टीका लगा है जबीं पर हाथ लोटा ज़रा सा लिए हैं
ऐसे आए हैं वो मय-कदे में जैसे मंदिर में आए हुए हैं

उँगलियाँ वो दिखाकर के बोले आँच कोई न आ जाए मुझ पर
जितने इल्ज़ाम थे मेरे सर पर सब के सब ही उठाए हुए हैं

पास आकर अरे देख तो लो मौत आसाँ लगेगी तुम्हें भी
उनके आगे फ़रिश्ते न जाने कब से गर्दन झुकाए हुए हैं

उनसे कह दो अब आज़ाद कर दें वरना सीधे क़यामत ही होगी
क़ैद-ए-तन्हाई में जन्म से ही यार बंदी बनाए हुए हैं

उनसे कह दो कि ठहरें ज़रा सा जान है बस निकलने ही वाली
जो बताया था ज़हर-ए-हलाहिल उससे ज़्यादा खिलाए हुए हैं

बस ज़रा देर तुम और ठहरो आँसुओं को तो रस्मन बहा लें
अब जनाज़े में देरी नहीं है सारी रस्में निभाए हुए हैं

- Prashant Kumar
1 Like

More by Prashant Kumar

As you were reading Shayari by Prashant Kumar

Similar Writers

our suggestion based on Prashant Kumar

Similar Moods

As you were reading undefined Shayari