जब देखने को आएँ पहरा बिठा हुआ हो
हों फूल सी क़बाएँ चेहरा खिला हुआ हो
ज़ोहरा-जमाल अब की इतना ख़याल रखना
दीदार हम करें तो पर्दा उठा हुआ हो
मेंहदी लगी हुई हो गर्दन में हो हमाइल
ऊपर कमर या फश पर इक तिल बना हुआ हो
ये रंग रूप ख़ुशबू हूरों से मिल रहे हों
कानों की बालियों पर क़ातिल लिखा हुआ हो
आँखों में दिख रहा हो ग़र्क़ाब का नज़ारा
रुख़सार पर बड़ा सा इक दिल बना हुआ हो
सारा जहान यूँ ही नख़रे उठा रहा हो
ख़ालिक़ भी ख़ुद परस्ती तेरी लगा हुआ हो
झुमके मटक मटक कर गर्दन को चूमते हों
दाँतों में मोतियों के सोना मढ़ा हुआ हो
बंद-ए-क़बा खुले ख़ुद गिर जाए कोई बिजली
कमज़ोर हर क़बा में टाँका लगा हुआ हो
तन-मन से लग रही हो देवी निज़ाम-ए-ज़र की
रुख़सार पर तुम्हारे सलमा लिखा हुआ हो
होंटों पे सिसकियाँ हों मुझको ही देखती हो
फूलों से पाँव में जब काँटा घुसा हुआ हो
ऐसे लुढ़क रहा है वो बद-हवास होकर
सारी शराब जैसे ख़ुद ही पिया हुआ हो
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