ख़ाक 'आलम की जबीं पे लगा के चलते हैं
पूरी दुनिया को ही हम घर बता के चलते हैं
चाहे हिंदू हो मुसलमान हो या ईसाई
ख़ून में ख़ून सभी का मिला के चलते हैं
क़ौम मज़हब ये तिरे काम के होंगे शायद
हम तो इंसान गले से लगा के चलते हैं
एक ही सबकी ज़मीं एक ही है सबका मुल्क
जो जो मिलता है सबक ये सिखा के चलते हैं
दार-उल-'इल्म ये संसार है और हम शागिर्द
छोटे बच्चों को अभी से बता के चलते हैं
उँगलियाँ क़ौम की हमपे न उठें आइंदा
हम तो हर ख़ून को अपना बता के चलते हैं
हम दबी जोत रहे हैं तिरी क्यूँ झुक जाएँ
हम ज़माने से निगाहें मिला के चलते हैं
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