तुम अगर साँस को चलने का सहारा देते
हम चले आते इक आवाज़ दुबारा देते
एक रोटी ही तो दी तुमने फ़क़ीरों को बस
मैं तो तब मानता जीवन का सहारा देते
ये तो घर बार के साथ और भी अच्छा होता
तुम बहू बेटियों को एक तहारा देते
तुम अगर हुस्न की कश्ती नहीं दे सकते थे
कम से कम फिर हमें साँसों का किनारा देते
जो किनारे खड़ा था तुम उसे थे पकड़े हुए
मैं तो तब मानता डूबे को सहारा देते
चलो कश्ती नहीं दे सकते परिंदे के लिए
तो फिर उसके लिए तिनके का सहारा देते
As you were reading Shayari by Prashant Kumar
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