"जब पापा पापा कहते थे" - Prashant Kumar

"जब पापा पापा कहते थे"

जब पापा पापा कहते थे
हम कितने मज़े में रहते थे
जब पापा हमने कहवाई
जाँ फट के गले में है आई
तब हँसते गाते फिरते थे
अब मारे मारे फिरते हैं
न ही कुछ खोने का डर था तब
न ही कुछ पाने की इच्छा थी
तब मन में जहाँ भी आता था
वहीं पे रोया करते थे हम
रोने के लिए भी अब हमको
जा बुक करवानी पड़ती है
जब पापा पापा कहते थे
हम कितने मज़े में रहते थे

स्कूल को हम तुम जाते थे
तब ज़ेब में पैसे रहते थे
अब हाथ सभी के ख़ाली हैं
कैसी यार अब की पढ़ाई है
वो पीठ पे बोझ किताबों का
और जेब में कंचे रहते थे
जब स्कूल से घर आते थे
तो चाॅक चुरा कर लाते थे
गिल्ली डंडा ले लेकर रोज़
हम गलियों गलियों फिरते थे
जब पापा पापा कहते थे
हम कितने मज़े में रहते थे

याद आता है वो दौर हमें
दादी के आँचल में छुपते थे
मम्मी को झूट बताते थे
पापा को झूट बताते थे
फिर होती ख़ूब पिटाई थी
हम अक्कड़ बक्कड़ करते थे
खुट्टल बुट्टल भी करते थे
जिससे भी लड़ाई होती थी
जब पापा पापा कहते थे
हम कितने मज़े में रहते थे

नाना नानी मौसा मौसी
मेहमान जो घर में आते थे
उनकी ज़ेब से पैसे चुराते थे
उनके बैग से चीज़ चुराते थे
वो बचपन याद आता है जब
बारिश में भीगा करते थे
काग़ज़ की नाव बनाकर ख़ूब
आँगन में हमने चलाई थी
जब पापा पापा कहते थे
हम कितने मज़े में रहते थे

मम्मी की आँखों में रहते
ओझल न कहीं फिर होते थे
मम्मी पापा के हिस्से की
हर चीज़ हमीं ने खाई थी
पापा की गोदी में रहते
हम रोज़ दुकानों पर जाते
फिर चीज़ वही मिलती हमको
उँगली जिस पर भी उठाई थी
जब पापा पापा कहते थे
हम कितने मज़े में रहते थे

वो दिन याद आते हैं हमको
जब सबके दिलों में रहते थे
बचपन का फ़साना याद आया
अब आँख मिरी भर आई है

- Prashant Kumar
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