Nazm Collection

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Mauj mein hai banjara - Shakeel Jamali

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''चल आ एक ऐसी नज़्म कहूँ''
चल आ एक ऐसी नज़्म कहूँ
जो लफ़्ज़ कहूँ वो हो जाए
बस अश्क कहूँ तो एक आँसू
तेरे गोरे गाल को धो जाए
मैं आ लिक्खूँ तू आ जाए
मैं बैठ लिक्खूँ तू आ बैठे
मेरे शाने पर सर रक्खे तू
मैं नींद कहूँ तू सो जाए
मैं काग़ज़ पर तेरे होंठ लिक्खूँ
तेरे होंठों पर मुस्कान आए
मैं दिल लिक्खूँ तू दिल थामे
मैं गुम लिक्खूँ वो खो जाए
तेरे हाथ बनाऊँ पेंसिल से
फिर हाथ पे तेरे हाथ रखूँ
कुछ उल्टा सीधा फ़र्ज़ करूँ
कुछ सीधा उल्टा हो जाए
मैं आह लिखूँ तू हाय करे
बेचैन लिखूँ बेचैन हो तू
फिर बेचैन का बे काटूँ
तुझे चैन ज़रा सा हो जाए
अभी ऐन लिखूँ तू सोचे मुझे
फिर शीन लिखूँ तेरी नींद उड़े
जब क़ाफ़ लिखूँ तुझे कुछ कुछ हो
मैं इश्क़ लिखूँ तुझे हो जाए
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Amir Ameer
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"हम मिलेंगे कहीं"
हम मिलेंगे कहीं
अजनबी शहर की ख़्वाब होती हुई शाहराओं पे और शाहराओं पे फैली हुई धूप में
एक दिन हम कहीं साथ होगे वक़्त की आँधियों से अटी साहतों पर से मिट्टी हटाते हुये
एक ही जैसे आँसू बहाते हुये
हम मिलेंगे घने जंगलो की हरी घास पर और किसी शाख़-ए-नाज़ुक पर पड़ते हुये बोझ की दास्तानों मे खो जायेंगे
हम सनोबर के पेड़ों की नोकीले पत्तों से सदियों से सोये हुये देवताओं की आँखें चभो जायेंगे
हम मिलेंगे कहीं बर्फ़ के बाजुओं मे घिरे पर्वतों पर
बाँझ क़ब्रो मे लेटे हुये कोह पेमाओं की याद में नज़्म कहते हुये
जो पहाड़ों की औलाद थें, और उन्हें वक़्त आने पर माँ बाप ने अपनी आग़ोश में ले लिया
हम मिलेंगे कही शाह सुलेमान के उर्स मे हौज़ की सीढियों पर वज़ू करने वालो के शफ़्फ़ाफ़ चेहरों के आगे
संगेमरमर से आरस्ता फ़र्श पर पैर रखते हुये
आह भरते हुये और दरख़्तों को मन्नत के धागो से आज़ाद करते हुये हम मिलेंगे
हम मिलेंगे कहीं नारमेंडी के साहिल पे आते हुये अपने गुम गश्तरश्तो की ख़ाक-ए-सफ़र से अटी वर्दियों के निशाँ देख कर
मराकिस से पलटे हुये एक जर्नेल की आख़िरी बात पर मुस्कुराते हुये
इक जहाँ जंग की चोट खाते हुये हम मिलेंगे
हम मिलेंगे कहीं रूस की दास्ताओं की झूठी कहानी पे आँखो मे हैरत सजाये हुये, शाम लेबनान बेरूत की नरगिसी चश्मूरों की आमद के नोहू पे हँसते हुये, ख़ूनी कज़ियो से मफ़लूह जलबानियाँ के पहाड़ी इलाक़ों मे मेहमान बन कर मिलेंगे
हम मिलेंगे एक मुर्दा ज़माने की ख़ुश रंग तहज़ीब मे ज़स्ब होने के इमकान में
इक पुरानी इमारत के पहलू मे उजड़े हुये लाँन में
और अपने असीरों की राह देखते पाँच सदियों से वीरान ज़िंदान मे
हम मिलेंगे तमन्नाओं की छतरियों के तले, ख़्वाहिशों की हवाओं के बेबाक बोसो से छलनी बदन सौंपने के लिये रास्तों को
हम मिलेंगे ज़मीं से नमूदार होते हुये आठवें बर्रे आज़म में उड़ते हुये कालीन पर
हम मिलेंगे किसी बार में अपनी बकाया बची उम्र की पायमाली के जाम हाथ मे लेंगे और एक ही घूंट में हम ये सैयाल अंदर उतारेंगे
और होश आने तलक गीत गायेंगे बचपन के क़िस्से सुनाता हुआ गीत जो आज भी हमको अज़बर है बेड़ी बे बेड़ी तू ठिलदी तपईये पते पार क्या है पते पार क्या है?
हम मिलेंगे बाग़ में, गाँव में, धूप में, छाँव में, रेत मे, दश्त में, शहर में, मस्जिदों में, कलीसो में, मंदिर मे, मेहराब में, चर्च में, मूसलाधार बारिश में, बाज़ार में, ख़्वाब में, आग में, गहरे पानी में, गलियों में, जंगल में और आसमानों में
कोनो मकाँ से परे गैर आबद सैयाराए आरज़ू में सदियों से खाली पड़ी बेंच पर
जहाँ मौत भी हम से दस्तो गरेबाँ होगी, तो बस एक दो दिन की मेहमान होगी
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Tehzeeb Hafi
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उस से मुहब्बत
झीलें क्या हैं?
उसकी आँखें

उम्दा क्या है?
उसका चेहरा

ख़ुश्बू क्या है?
उसकी साँसें

खुशियाँ क्या हैं?
उसका होना

तो ग़म क्या है?
उससे जुदाई

सावन क्या है?
उसका रोना

सर्दी क्या है?
उसकी उदासी

गर्मी क्या है?
उसका ग़ुस्सा

और बहारें?
उसका हँसना

मीठा क्या है?
उसकी बातें

कड़वा क्या है?
मेरी बातें

क्या पढ़ना है?
उसका लिक्खा

क्या सुनना है?
उसकी ग़ज़लें

लब की ख़्वाहिश?
उसका माथा

ज़ख़्म की ख़्वाहिश?
उसका छूना

दुनिया क्या है?
इक जंगल है

और तुम क्या हो?
पेड़ समझ लो

और वो क्या है?
इक राही है

क्या सोचा है?
उस से मुहब्बत

क्या करते हो?
उस से मुहब्बत

मतलब पेशा?
उस से मुहब्बत

इस के अलावा?
उस से मुहब्बत

उससे मुहब्बत........
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Varun Anand
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"याद है पहले रोज़ कहा था"
याद है पहले रोज़ कहा था
फिर न कहना ग़लती दिल की
प्यार समझ के करना लड़की
प्यार निभाना होता है
फिर पार लगाना होता है

याद है पहले रोज़ कहा था
साथ चलो तो पूरे सफ़र तक
मर जाने की अगली ख़बर तक
समझो यार ख़ुदा तक होगा
सारा प्यार वफ़ा तक होगा
फिर ये बंधन तोड़ न जाना
छोड़ गए तो फिर न आना
छोड़ दिया जो तेरा नहीं है
चला गया जो मेरा नहीं है

याद है पहले रोज़ कहा था
या तो टूट के प्यार न करना
या फिर पीठ पे वार न करना
जब नादानी हो जाती है
नई कहानी हो जाती है
नई कहानी लिख लाऊँगा
अगले रोज़ मैं बिक जाऊँगा
तेरे गुल जब खिल जाएँगे
मुझको पैसे मिल जाएँगे

याद है पहले रोज़ कहा था
बिछड़ गए तो मौज उड़ाना
वापस मेरे पास न आना
जब कोई जाकर वापस आए
रोए तड़पे या पछताए
मैं फिर उसको मिलता नहीं हूँ
साथ दोबारा चलता नहीं हूँ
गुम जाता हूँ खो जाता हूँ
मैं पत्थर का हो जाता हूँ
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Khalil Ur Rehman Qamar
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"मरियम"
मैं आईनों से गुरेज़ करते हुए
पहाड़ों की कोख में साँस लेने वाली उदास झीलों में अपने चेहरे का अक्स देखूँ तो सोचता हूँ
कि मुझ में ऐसा भी क्या है मरियम
तुम्हारी बे-साख़्ता मोहब्बत ज़मीं पे फैले हुए समंदर की वुसअतों से भी मावरा है
मोहब्बतों के समंदरों में बस एक बहिरा-ए-हिज्र है जो बुरा है मरियम
ख़ला-नवर्दों को जो सितारे मुआवज़े में मिले थे
वो उनकी रौशनी में ये सोचते हैं
कि वक़्त ही तो ख़ुदा है मरियम
और इस तअल्लुक़ की गठरियों में
रुकी हुई सआतों से हटकर
मेरे लिए और क्या है मरियम
अभी बहुत वक़्त है कि हम वक़्त दे ज़रा इक दूसरे को
मगर हम इक साथ रहकर भी ख़ुश न रह सके तो मुआफ़ करना
कि मैंने बचपन ही दुख की दहलीज़ पर गुज़ारा
मैं उन चराग़ों का दुख हूँ जिनकी लवे शब-ए-इंतज़ार में बुझ गई
मगर उनसे उठने वाला धुआँ ज़मान-ओ-मकाँ में फैला हुआ है अब तक
मैं कोहसारों और उनके जिस्मों से बहने वाली उन आबशारों का दुख हूँ जिनको
ज़मीं के चेहरों पर रेंगते रेंगते ज़माने गुज़र गए हैं
जो लोग दिल से उतर गए हैं
किताबें आँखों पे रख के सोए थे मर गए हैं
मैं उनका दुख हूँ
जो जिस्म ख़ुद-लज़्जती से उकता के आईनों की तसल्लिओं में पले बढ़े हैं
मैं उनका दुख हूँ
मैं घर से भागे हुओ का दुख हूँ
मैं रात जागे हुओ का दुख हूँ
मैं साहिलों से बँधी हुई कश्तियों का दुख हूँ
मैं लापता लड़कियों का दुख हूँ
खुली हुए खिड़कियों का दुख हूँ
मिटी हुई तख़्तियों का दुख हूँ
थके हुए बादलों का दुख हूँ
जले हुए जंगलों का दुख हूँ
जो खुल कर बरसी नहीं है, मैं उस घटा का दुख हूँ
ज़मीं का दुख हूँ
ख़ुदा का दुख हूँ
बला का दुख हूँ
जो शाख सावन में फूटती है वो शाख तुम हो
जो पींग बारिश के बाद बन बन के टूटती है वो पींग तुम हो
तुम्हारे होठों से सआतों ने समाअतों का सबक़ लिया है
तुम्हारी ही शाख-ए-संदली से समंदरों ने नमक लिया है
तुम्हारा मेरा मुआमला ही जुदा है मरियम
तुम्हें तो सब कुछ पता है मरियम
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Tehzeeb Hafi
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"तू किसी और ही दुनिया में मिली थी मुझसे"
तू किसी और ही मौसम की महक लाई थी
डर रहा था कि कहीं ज़ख़्म न भर जाएँ मेरे
और तू मुट्ठियाँ भर-भर के नमक लाई थी
और ही तरह की आँखें थी तेरे चेहरे पर
तू किसी और सितारे से चमक लाई थी
तेरी आवाज़ ही सबकुछ थी मुझे मोनिस-ए-जाँ
क्या करुँ मैं कि तू बोली ही बहुत कम मुझसे
तेरी चुप से ही यही महसूस किया था मैंने
जीत जायेगा तेरा ग़म किसी रोज़ मुझसे
शहर आवाज़ें लगाता था मगर तू चुप थी
ये ताल्लुक मुझे खाता था मगर तू चुप थी
वही अंजाम था जो इश्क़ का आगाज़ से है
तुझको पाया भी नहीं था कि तुझे खोना था
चली आती है यही रस्म कई सदियों से
यही होता है, यही होगा, यही होना था
पूछता रहता था तुझसे कि “बता क्या दुख है?”
और मेरी आँख में आँसू भी नहीं होते थे
मैने अंदाज़े लगाये के सबब क्या होगा
पर मेरे तीर तराजू भी नहीं होते थे
जिसका डर था मुझे मालूम पड़ा लोगों से
फिर वो ख़ुश-बख़्त पलट आया तेरी दुनिया में
जिसके जाने पे मुझे तूने जगह दी दिल में
मेरी क़िस्मत मे ही जब खाली जगह लिखी थी
तुझसे शिकवा भी अगर करता तो कैसे करता
मै वो सब्ज़ा था जिसे रौंद दिया जाता है
मै वो जंगल था जिसे काट दिया जाता है
मै वो दर्द था जिसे दस्तक की कमी खाती है
मै वो मंज़िल था जहाँ टूटी सड़क जाती है
मै वो घर था जिसे आबाद नहीं करता कोई
मै तो वो था जिसे याद नहीं करता कोई
ख़ैर इस बात को तू छोड़, बता कैसी है?
तूने चाहा था जिसे, वो तेरे नज़दीक तो है?
कौन से ग़म ने तुझे चाट लिया अंदर से
आज कल फिर से तू चुप रहती है, सब ठीक तो है?
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Tehzeeb Hafi
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सफ़ेद शर्ट थी तुम सीढ़ियों पे बैठे थे
मैं जब क्लास से निकली थी मुस्कुराते हुए
हमारी पहली मुलाक़ात याद है ना तुम्हें?
इशारे करते थे तुम मुझको आते जाते हुए
तमाम रात को आँखे न भूलती थीं मुझे
कि जिनमें मेरे लिए इज़्ज़त और वक़ार दिखे
मुझे ये दुनिया बयाबान थी मगर इक दिन
तुम एक बार दिखे और बेशुमार दिखे
मुझे ये डर था कि तुम भी कहीं वो ही तो नहीं
जो जिस्म पर ही तमन्ना के दाग़ छोड़ते हैं
ख़ुदा का शुक्र कि तुम उनसे मुख़्तलिफ़ निकले
जो फूल तोड़ के ग़ुस्से में बाग़ छोड़ते हैं
ज़ियादा वक़्त न गुज़रा था इस तअल्लुक़ को
कि उसके बाद वो लम्हा करीं करीं आया
छुआ था तुमने मुझे और मुझे मोहब्बत पर
यक़ीन आया था लेकिन कभी नहीं आया
फिर उसके बाद मेरा नक्शा-ए-सुकूत गया
मैं कश्मकश में थी तुम मेरे कौन लगते हो
मैं अमृता तुम्हें सोचूँ तो मेरे साहिर हो
मैं फ़ारिहा तुम्हें देखूँ तो जॉन लगते हो
हम एक साथ रहे और हमें पता न चला
तअल्लुक़ात की हद बंदियाँ भी होती हैं
मोहब्बतों के सफ़र में जो रास्ते हैं वहीं
हवस की सिम्त में पगडंडियाँ भी होती हैं
तुम्हारे वास्ते जो मेरे दिल में है 'हाफ़ी'
तुम्हें ये काश मैं सब कुछ कभी बता पाती
और अब मज़ीद न मिलने की कोई वजह नहीं
बस अपनी माँ से मैं आँखें नहीं मिला पाती
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Tehzeeb Hafi
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मुर्शिद
मुर्शिद प्लीज़ आज मुझे वक़्त दीजिये
मुर्शिद मैं आज आप को दुखड़े सुनाऊँगा
मुर्शिद हमारे साथ बड़ा ज़ुल्म हो गया
मुर्शिद हमारे देश में इक जंग छिड़ गयी
मुर्शिद सभी शरीफ़ शराफ़त से मर गए
मुर्शिद हमारे ज़ेहन गिरफ़्तार हो गए
मुर्शिद हमारी सोच भी बाज़ारी हो गयी
मुर्शिद हमारी फौज क्या लड़ती हरीफ़ से
मुर्शिद उसे तो हम से ही फ़ुर्सत नहीं मिली
मुर्शिद बहुत से मार के हम ख़ुद भी मर गए
मुर्शिद हमें ज़िरह नहीं तलवार दी गयी
मुर्शिद हमारी ज़ात पे बोहतान चढ़ गए
मुर्शिद हमारी ज़ात पलांदों में दब गयी
मुर्शिद हमारे वास्ते बस एक शख़्स था
मुर्शिद वो एक शख़्स भी तक़दीर ले उड़ी
मुर्शिद ख़ुदा की ज़ात पे अंधा यक़ीन था
अफ़्सोस अब यक़ीन भी अंधा नहीं रहा
मुर्शिद मुहब्बतों के नताइज कहाँ गए
मुर्शिद मेरी तो ज़िन्दगी बर्बाद हो गयी
मुर्शिद हमारे गाँव के बच्चों ने भी कहा
मुर्शिद कूँ आखि आ के सदा हाल देख वजं
मुर्शिद हमारा कोई नहीं एक आप हैं
ये मैं भी जानता हूँ के अच्छा नहीं हुआ
मुर्शिद मैं जल रहा हूँ हवाएँ न दीजिये
मुर्शिद अज़ाला कीजिये दुआएँ न दीजिये
मुर्शिद ख़मोश रह के परेशाँ न कीजिये
मुर्शिद मैं रोना रोते हुए अंधा हो गया
और आप हैं के आप को एहसास तक नहीं
हह! सब्र कीजे सब्र का फ़ल मीठा होता है
मुर्शिद मैं भौंकदै हाँ जो कई शे वि नहीं बची
मुर्शिद वहां यज़ीदियत आगे निकल गयी
और पारसा नमाज़ के पीछे पड़े रहे
मुर्शिद किसी के हाथ में सब कुछ तो है मगर
मुर्शिद किसी के हाथ में कुछ भी नहीं रहा
मुर्शिद मैं लड़ नहीं सका पर चीख़ता रहा
ख़ामोश रह के ज़ुल्म का हामी नहीं बना
मुर्शिद जो मेरे यार भला छोड़ें रहने दें
अच्छे थे जैसे भी थे ख़ुदा उन को ख़ुश रखें
मुर्शिद हमारी रौनकें दूरी निगल गयी
मुर्शिद हमारी दोस्ती सुब्हात खा गए
मुर्शिद ऐ फोटो पिछले महीने छिकाया हम
हूँ मेकुं देख लगदा ऐ जो ऐ फोटो मेदा ऐ
ये किस ने खेल खेल में सब कुछ उलट दिया
मुर्शिद ये क्या के मर के हमें ज़िन्दगी मिले
मुर्शिद हमारे विरसे में कुछ भी नहीं सो हम
बेमौसमी वफ़ात का दुख छोड़ जाएंगे
मुर्शिद किसी की ज़ात से कोई गिला नहीं
अपना नसीब अपनी ख़राबी से मर गया
मुर्शिद वो जिस के हाथ में हर एक चीज़ है
शायद हमारे साथ वही हाथ कर गया
मुर्शिद दुआएँ छोड़ तेरा पोल खुल गया
तू भी मेरी तरह है तेरे बस में कुछ नहीं
इंसान मेरा दर्द समझ सकते ही नहीं
मैं अपने सारे ज़ख्म ख़ुदा को दिखाऊँगा
ऐ रब्बे कायनात! इधर देख मैं फ़कीर
जो तेरी सरपरस्ती में बर्बाद हो गया
परवरदिगार बोल कहाँ जाएँ तेरे लोग
तुझ तक पहुँचने को भी वसीला ज़रूरी है
परवरदिगार आवे का आवा बिगड़ गया
ये किसको तेरे दीन के ठेके दिए गये
हर शख़्स अपने बाप के फिरके में बंद है
परवरदिगार तेरे सहीफे नहीं खुले
कुछ और भेज तेरे गुज़िश्ता सहीफों से
मक़सद ही हल हुए हैं मसाइल नहीं हुए
जो हो गया सो हो गया, अब मुख़्तियारी छीन
परवरदिगार अपने ख़लीफे को रस्सी डाल
जो तेरे पास वक़्त से पहले पहुँच गये
परवरदिगार उनके मसाइल का हल निकाल
परवरदिगार सिर्फ़ बना देना काफ़ी नइँ
तख़्लीक करके दे तो फिर देखभाल कर
हम लोग तेरी कुन का भरम रखने आए हैं
परवरदिगार यार! हमारा ख़याल कर
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Afkar Alvi
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मेरे जख्म नहीं भरते यारों
मेरे नाखून बढ़ते जाते हैं

मैं तन्हा पेड़ हूं जंगल का
मेरे पत्ते झड़ते जाते हैं
मैं कौन हूं, क्या हूं, कब की हूं
एक तेरी कब हूं, सबकी हूं
मैं कोयल हूं शहराओ की
मुझे ताब नहीं है छांव की
एक दलदल है तेरे वादों की
मेरे पैर उखड़ते जाते हैं
मेरे जख्म नहीं भरते यारो
मेरे नाखून बढ़ते जाते हैं

मैं किस बच्चे की गुड़िया थी
मैं किस पिंजरे की चिड़िया थी
मेरे खेलने वाले कहां गए
मुझे चूमने वाले कहां गए
मेरे झुमके गिरवी मत रखना
मेरे कंगन तोड़ ना देना
मैं बंजर होती जाती हूं
कहीं दरिया मोड़ ना देना
कभी मिलना इस पर सोचेंगे
हम क्या मंजिल पर पहुंचेंगे
रास्तों में ही लड़ते जाते हैं
मेरे जख्म नहीं भरते यारों
मेरे नाखून बढ़ते जाते हैं
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Tehzeeb Hafi
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दौलत ना अता करना मौला, शोहरत ना अता करना मौला
बस इतना अता करना चाहे जन्नत ना अता करना मौला
शम्मा-ए-वतन की लौ पर जब कुर्बान पतंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो

बस एक सदा ही सुनें सदा बर्फ़ीली मस्त हवाओं में
बस एक दुआ ही उठे सदा जलते-तपते सेहराओं में
जीते-जी इसका मान रखें
मर कर मर्यादा याद रहे
हम रहें कभी ना रहें मगर
इसकी सज-धज आबाद रहे
जन-मन में उच्छल देश प्रेम का जलधि तरंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो

गीता का ज्ञान सुने ना सुनें, इस धरती का यशगान सुनें
हम सबद-कीर्तन सुन ना सकें भारत मां का जयगान सुनें
परवरदिगार,मैं तेरे द्वार
पर ले पुकार ये आया हूं
चाहे अज़ान ना सुनें कान
पर जय-जय हिन्दुस्तान सुनें
जन-मन में उच्छल देश प्रेम का जलधि तरंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो
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Kumar Vishwas
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मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
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Faiz Ahmad Faiz
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पानी कौन पकड़ सकता है
जब वो इस दुनिया के शोर और ख़मोशी से क़त'अ-तअल्लुक़ होकर इंग्लिश में गुस्सा करती है,
मैं तो डर जाता हूँ लेकिन कमरे की दीवारें हँसने लगती हैं

वो इक ऐसी आग है जिसे सिर्फ़ दहकने से मतलब है,
वो इक ऐसा फूल है जिसपर अपनी ख़ुशबू बोझ बनी है,
वो इक ऐसा ख़्वाब है जिसको देखने वाला ख़ुद मुश्किल में पड़ सकता है,
उसको छूने की ख़्वाइश तो ठीक है लेकिन
पानी कौन पकड़ सकता है

वो रंगों से वाकिफ़ है बल्कि हर इक रंग के शजरे तक से वाकिफ़ है,
उसको इल्म है किन ख़्वाबों से आंखें नीली पढ़ सकती हैं,
हमने जिनको नफ़रत से मंसूब किया
वो उन पीले फूलों की इज़्ज़त करती है

कभी-कभी वो अपने हाथ मे पेंसिल लेकर
ऐसी सतरें खींचती है
सब कुछ सीधा हो जाता है

वो चाहे तो हर इक चीज़ को उसके अस्ल में ला सकती है,
सिर्फ़ उसीके हाथों से सारी दुनिया तरतीब में आ सकती है,
हर पत्थर उस पाँव से टकराने की ख़्वाइश में जिंदा है लेकिन ये तो इसी अधूरेपन का जहाँ है,
हर पिंजरे में ऐसे क़ैदी कब होते हैं
हर कपड़े की किस्मत में वो जिस्म कहाँ है

मेरी बे-मक़सद बातों से तंग भी आ जाती है तो महसूस नहीं होने देती
लेकिन अपने होने से उकता जाती है,
उसको वक़्त की पाबंदी से क्या मतलब है
वो तो बंद घड़ी भी हाथ मे बांध के कॉलेज आ जाती है
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Tehzeeb Hafi
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रायगानी
मैं कमरे में पिछले इकत्तीस दिनों से
फ़क़त इस हक़ीक़त का नुकसान
गिनने की कोशिश में उलझा हुआ हूँ
कि तू जा चुकी है
तुझे रायगानी का रत्ती बराबर अंदाज़ा नहीं है
तुझे याद है वो ज़माना
जो कैम्पस की पगडंडियों पे टहलते हुए कट गया था
तुझे याद है कि जब क़दम चल रहे थे
कि एक पैर तेरा था और एक मेरा
क़दम वो जो धरती पे आवाज़ देते
कि जैसे हो रागा कोई मुतरीबों का
क़दम जैसे के
सा पा गा मा पा गा सा रे
वो तबले की तिरखट पे
तक धिन धिनक धिन तिनक धिन धना धिन बहम चल रहे थे, क़दम चल रहे थे
क़दम जो मुसलसल अगर चल रहे थे
तो कितने गवइयों के घर चल रहे थे
मगर जिस घड़ी
तू ने उस राह को मेरे तनहा क़दम के हवाले किया
उन सुरों की कहानी वहीं रुक गई
कितनी फनकारियाँ कितनी बारीकियाँ
कितनी कलियाँ बिलावल
गवईयों के होंठों पे आने से पहले फ़ना हो गये
कितने नुसरत फ़तह कितने मेहँदी हसन मुन्तज़िर रह गये
कि हमारे क़दम फिर से उठने लगें
तुझको मालूम है
जिस घड़ी मेरी आवाज़ सुन के
तू इक ज़ाविये पे पलट के मुड़ी थी वहां से,
रिलेटिविटी का जनाज़ा उठा था
कि उस ज़ाविये की कशिश में ही यूनान के फ़लसफ़े
सब ज़मानों की तरतीब बर्बाद कर के तुझे देखने आ गये थे
कि तेरे झुकाव की तमसील पे
अपनी सीधी लकीरों को ख़म दे सकें
अपनी अकड़ी हुई गर्दनों को लिये अपने वक़्तों में पलटें,
जियोमैट्री को जन्म दे सकें
अब भी कुछ फलसफ़ी
अपने फीके ज़मानों से भागे हुए हैं
मेरे रास्तों पे आँखें बिछाए हुए
अपनी दानिस्त में यूँ खड़े हैं कि जैसे
वो दानिश का मम्बा यहीं पे कहीं है
मगर मुड़ के तकने को तू ही नहीं है
तो कैसे फ्लोरेन्स की तंग गलियों से कोई डिवेन्ची उठे
कैसे हस्पानिया में पिकासु बने
उनकी आँखों को तू जो मयस्सर नहीं है
ये सब
तेरे मेरे इकट्ठे ना होने की क़ीमत अदा कर रहे हैं
कि तेरे ना होने से हर इक ज़मा में
हर एक फ़न में हर एक दास्ताँ में
कोई एक चेहरा भी ताज़ा नहीं है
तुझे रायगानी का रत्ती बराबर अंदाज़ा नहीं है
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Sohaib Mugheera Siddiqi
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"भली सी एक शक्ल थी"
भले दिनों की बात है
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी
न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे

कोई भी रुत हो उस की छब
फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी
वो सर्दियों की धूप थी

न मुद्दतों जुदा रहे
न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो
न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
न ये कि इज़्न-ए-आम हो

न ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
न इतनी बे-तकल्लुफ़ी
कि आइना हया करे

न इख़्तिलात में वो रम
कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें
न इस क़दर सुपुर्दगी
कि ज़च करें नवाज़िशें
न आशिक़ी जुनून की
कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर कठोर-पन
कि दोस्ती ख़राब हो

कभी तो बात भी ख़फ़ी
कभी सुकूत भी सुख़न
कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़राँ
कभी उदासियों का बन

सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जाँ-फ़ज़ा तो क्या
फ़िराक़-ए-जाँ-गुसिल की भी

सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिड़ गई

मैं इश्क़ का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बद-तर-अज़-हवस कहे

शजर हजर नहीं कि हम
हमेशा पा-ब-गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तक़िल रहें

मोहब्बतों की वुसअतें
हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं

मैं कोई पेंटिंग नहीं
कि इक फ़्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ

तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं

न उस को मुझ पे मान था
न मुझ को उस पे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई न हो
तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी
सो अपना अपना रास्ता
हँसी-ख़ुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी
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Ahmad Faraz
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बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम, बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
कभी मैं जो कह दूँ मोहब्बत है तुम से
तो मुझ को ख़ुदारा ग़लत मत समझना
कि मेरी ज़रूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

हैं फूलों की डाली पे बाँहें तुम्हारी
हैं ख़ामोश जादू निगाहें तुम्हारी
जो काँटे हूँ सब अपने दामन में रख लूँ
सजाऊँ मैं कलियों से राहें तुम्हारी
नज़र से ज़माने की ख़ुद को बचाना
किसी और से देखो दिल मत लगाना
कि मेरी अमानत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम...

कभी जुगनुओं की क़तारों में ढूँडा
चमकते हुए चाँद तारों में ढूँडा
ख़िज़ाओं में ढूँडा बहारों में ढूँडा
मचलते हुए आबसारों में ढूँडा
हक़ीक़त में देखा, फ़साने में देखा
न तुम सा हँसी, इस ज़माने देखा
न दुनिया की रंगीन महफ़िल में पाया
जो पाया तुम्हें अपना ही दिल में पाया
एक ऐसी मसर्रत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

है चेहरा तुम्हारा कि दिन है सुनहरा
है चेहरा तुम्हारा कि दिन है सुनहरा
और इस पर ये काली घटाओं का पहरा
गुलाबों से नाज़ुक महकता बदन है
ये लब हैं तुम्हारे कि खिलता चमन है
बिखेरो जो ज़ुल्फ़ें तो शरमाए बादल
फ़रिश्ते भी देखें तो हो जाएँ पागल
वो पाकीज़ा मूरत हो तुम बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

जो बन के कली मुस्कुराती है अक्सर
शब हिज्र में जो रुलाती है अक्सर
जो लम्हों ही लम्हों में दुनिया बदल दे
जो शाइ'र को दे जाए पहलू ग़ज़ल के
छुपाना जो चाहें छुपाई न जाए
भुलाना जो चाहें भुलाई न जाए

वो पहली मोहब्बत हो तुम बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
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Tahir Faraz
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