इश्क़ की पेचीदगी में हम उलझ कर रह गए
हँसते हँसते हर सितम को ख़ामोशी से सह गए
हमको सब मालूम था अहद-ए-वफ़ा को चुप रहे
और जो अनजान थे वो हमको क्या क्या कह गए
था गुमाँ हमको बहुत हैं चाहने वाले हमें
वक़्त पर सब ताश के पत्तों के जैसे ढ़ह गए
चार दिन की ज़िन्दगी में चार सौ आशिक़ मिले
हम मगर उनके बिना फिर भी अकेले रह गए
उनके कूचे से जो गुज़रे कल महीनों बाद हम
आँख से अफ़सोस के आँसू अचानक बह गए
एक वो जिनकी गली में हर पहर हलचल रही
एक हम जो ख़ुद से मिलने को तरसते रह गए
हम नशे में भी बिगड़ पाए नहीं उनपर कभी
होश में भी वो मगर हमको बहुत कुछ कह गए
बस तुम्हारी शायरी में दर्द ज़िन्दा रखने को
क्या ख़बर 'रेहान' कितनी ज़िल्लतें हम सह गए
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