कहीं तो लोग सब ख़ुशियाँ मनाते हैं दिसम्बर में
कहीं पे लोग अपनों को गँवाते हैं दिसम्बर में
ठिठुरता है कोई मजबूर भूखा ठंड में दिन-रात
कहीं सब शौक़ से कैंडल जलाते हैं दिसम्बर में
न दिन में ही कोई रौनक न कोई शोर रातों को
कि जितने गाँव हैं सब रूठ जाते हैं दिसम्बर में
किए थे जो भी वादे जनवरी में जिस किसी से भी
वो वादे लोग सारे तोड़ आते हैं दिसम्बर में
जो जुड़ जाते हैं दो दिल यूँ ही भीतर एक छाते के
वो दिल फिर बिस्तरों पे टूट जाते हैं दिसम्बर में
जो बीती फ़रवरी मरते थे इक दूजे से मिलने को
वो मिलने पर भी अब नज़रें चुराते हैं दिसम्बर में
कईं ख़ुश हैं कि आनी फ़रवरी फिर तो कईं ऐसे
जो बीती फ़रवरी का ग़म भुलाते हैं दिसम्बर में
हुआ जो कुछ भी पूरे साल भर 'रेहान' वो सारे
गिले-शिकवे पुराने याद आते हैं दिसम्बर में
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