इल्तिजा तुमसे ज़माने पर ज़रा एहसान करना
भूलकर भी तुम न ख़ुद को अब किसी की जान करना
ख़ुद-कुशी भी कर नहीं पाते हैं बेचारे ये आशिक़
फिर न तुम आगे किसी के वास्ते रमज़ान करना
ख़ास कुछ तेरे लिए मैं लिख नहीं पाया कभी भी
है गुज़ारिश ये कि मुझको माफ़ हिंदुस्तान करना
एक ग़म ये है कि मुझसे क्यूँ नहीं मिलती हो अब तुम
एक डर है गर मिलो तो दिल न ये नुक़्सान करना
फिर वही काबा-ओ-काशी फिर वही वस्ल-ओ-जुदाई
दो दिलों को फिर न यूँ मज़लूम ऐ भगवान करना
बन सको मेरी कभी तुम रह गई ख़्वाहिश अधूरी
दूर जा मुझसे फ़क़त अब मुश्किलें आसान करना
है दुआ बस ये ख़ुदा फिर यूँ दिखाकर ख़्वाब झूठे
इश्क़ में फिर से न कोई ज़िंदगी शमशान करना
बे-वफ़ाई माफ़ है पर इस-क़दर 'रेहान' फिर तुम
वास्ते रस्म-ए-वफ़ा के ख़ुद को मत क़ुर्बान करना
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