क्या जब्र है कि अब दुआ में कुछ असर नहीं
वो साथ जो नहीं है तो जैसे कि घर नहीं
दिलकश कोई भी अब नहीं लगता है उसके बाद
उल्फ़त नहीं किसी से किसी पर नज़र नहीं
मुश्ताक़ मैं कि आज हूँ फिर उसके शहर में
बे-रहम वो कि फिर उसे कोई ख़बर नहीं
बे-बहर इक ग़ज़ल मैं है पाबंद नज़्म वो
मंज़िल ये ऐसी जिसकी कोई रहगुज़र नहीं
उम्मीद-ए-यार सुन कि दिल-ए-बे-क़रार सुन
वापस यहाँ से लौट जा अब और ठहर नहीं
क्यूँ हो गया है हिज्र में पागल तू इस तरह
क्या मर्ज़ है ये जिसका कोई चारा-गर नहीं
लिखता है उसकी याद में तू रोज़ कुछ न कुछ
बाक़ी तेरी तबाही में कोई कसर नहीं
'रेहान' ये ग़ज़ल जो हैं ये सब तो उसके हैं
देखे अगर तो तुझमें यूँ कुछ भी हुनर नहीं
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